Tuesday, June 5, 2012

इतिहास !

चीजें कितनी तेजी से जा रही हैं अतीत में!
अतीत से कथाओं में, कथाओं से मिथक में
और समय अनुपस्थित हो गया है
इन मिथकों के बीच
समकालीन कहाँ रह गया है कुछ भी........
सूरत और बाथे की लाशें पहुँच गयी हैं मुसोलिनी के कदमों के नीचे
और मुसोलिनी पहुँच गया है मनु के आश्रम में.....
और यह सब पहुँच गया है पाठ्यक्रम में.
हमारी स्मृतियाँ मुक्त हैं सदमों से,
सदमें मुक्त हैं संवेदना से, संवेदना दूर है विवेक से,
विवेक दूर है कर्म से.......
चीजें कितनी तेजी से जा रही है अतीत में,
और हम सबकुछ समय के एक ही फ्रेम में बैठकर
         निश्चिन्त हो रहे
भिवंडी की अधजली आत्माएँ,
सिन्धु घाटी की निस्तब्धता
         निस्संगता और वैराग्य के
         परदे में दफ़्न हैं.
इतिहास!
अब तुम्हें ही बनाना होगा समकालीन को 'समकालीन'.


-अंशु मालवीय 

मौज है पैसे वालों की

मौज है पैसे वालों की
मुश्किल है कंगालो की
दम-दम ऊपर बोली लगती
दिल्ली में दलालों की।


नित नये बाजार, होते हैं तैयार
व्यापारी की भीड़ लगी रहे, बड़े-बड़े साहूकार
ज्यादा पल्लेदार
टंडी-मण्डी टालों की,
कमी नहीं कुछ मालों की
तरह-तरह के भरे नमूने, विक्री घनी कमालों की
मौज हैं...


फैक्ट्री और मील, माल बने लगशील
छोटी-बड़ी कचहरी सूबा, थाना और तहसील
अफसर और वकील
खाते चाँट मसालों की,
ठग जेब तराश चंडालों की
फैशन के मा ऊँची होगी पार्टी रिझालों की
मौज हैं...


रघुनाथ बात भरपूर कहनी पड़े जरूर
कमी भटकते फिरते हैं, ये मेहनतकश मजदूर
भूखे बिना कसूर
दुर्गति हाल बेहालों की,
कानून किताब जंजालों की
हे भगवान दया करिये, अब हद हो गयी कूचालों की
मौज हैं ...




-रघुनाथ

कन्या–भ्रूणों का क़ब्रिस्तान

फैला है चारों तरफ़
माँओं के जिगर के ख़ून का ख़ून
हरी–भरी क्यारियाँ वासंती
बनतीं मरुस्थल बियाबान
आँचल को कर लहूलुहान
बन रहा सारा हिन्दुस्तान
कन्या–भ्रूणों का क़ब्रिस्तान

अंधेरे में छिपे सितारों पर
पूँजीवाद की कटार
वार करती बार–बार
जो ले ली है यमराज के हाथों से
सभ्य पुरुष ने
जो बाहर से गौरव है
भीतर से कौरव
अपने किए पर
ख़ुर्दबीन लगाए बैठा है भयभीत

गर्भ
सबसे बड़ा वधस्थल है देश का
चारों तरफ़ फैली मौत की रुधिर-धार
स्नेह–रज्जु को काट
लहराती है ख़ूनी कटार
सभ्यता इतराती है
जननी को जन्म से पहले
मिटाने की तैयारी में

मिटाने की तैयारी में
सर्पिल हाथ
बालों में लहराते
औरत की लाचारी पर
भय की मोहर लगाते
निर्बाध व्यापार के लिए
विजय–दिवस मनाते
करते दिलासा का पाठ–
मै हूँ न!

घर–दर–घर
बन रहे आतंक के मुर्दाघर
जीवन के थोथे शोर के बीच
एक हत्याकांड हो रहा बार–बार
लगातार
इस–उस जगह
प्रेम का भार ढो रहा
ऐसे ही शोर के बीच
सरे जहान का दर्द और लावा
समेटती बोली एक अजन्मी बेटी
संसार का सब कुछ
समाया था तुम्हारे भीतर माँ
पहाड़ों की ऊँचाई
समुद्र की लहरें
फूलों की ख़ुशबू
दरख़्तों की हरियाली ।
अनहद था वह मल्हार
जो तुझे मुझे महका रहा था
पर किसने राग शंकरा लगा
तुझे बैरागी बनने को किया मज़बूर ?
मुझे तुमसे अलग करने का
गुनाह किसने किया ? क्यों किया ?

माँ, सच बताओ
तुम्हें ठेले की तरह ठेलकर
कौन लाया था अस्पताल में ?
माँ तू मुझे जन्म देती
तो मैं तेरी लोरी होती
तूने लोरियों को क्यों गिरा दिया माँ !
क्या तुम्हारा पति
करता है तुमसे सच्चा प्रेम
या उसका मति–भ्रम
चाहता है वारिस और गति

क्या तुम करवाचौथ का व्रत
इसलिए रखती हो
कि सात जनम का साथी
करता रहे ख़ून का ख़ून
जबकि

आज़ादी नहीं तुम्हें जन्म देने की 
और मुझे जन्म लेने की ...

माँ !
सदियों से यहाँ
पल–पल अग्नि–परीक्षा होती
पल–पल होता चीर–हरण!
इन घूरों में दबी आग अब
जल्द धधकने वाली है ।...

झूठी सभ्यता का
पानी उतारने का हौसला लेकर
तुम्हें उठना होगा !
आँचल में दूध और
आँखो में पानी की कहानी को
बदलना होगा...



-अशोक भाटिया

मध्यवर्ग- चार कविताएँ

1.
एक स्याह सुरंग से निकल–निकल कर
चमड़े की छाती ताने आते हैं वे
सुख बटोरने के लिए
सच्चाइयों के आर–पार
घने पर्दों को लटकाए
चले जातें हैं वे

इन पर्दों के बीच
इतिहास की गति से बचने की
अपनी कमज़ोरियाँ भुलाने
ज़िंदगी को लड़ाई की बजाय
स्थिर सुख में बदलने की साजिश के अगुआ
सुख को सभ्यता मानकर
एक मुर्दा संस्कृति के बीच
अपने सिरों पर गिद्धों की तरह बैठे हुए
चले जाते हैं वे
एक स्याह सुरंग से
दूसरी स्याह सुरंग तक

2
पैंतीस की उम्र में
मैं बड़ा सुखी हूँ
बाल कटी बीवी
टी०वी०, बच्चे, फ्रिज के बाद
अब अपना मकान है मेरे पास
पूँजीपतियों के शेयर हैं
कुछ रोमानी सपने
और कामुक कल्पनाएँ
सफल कर लिया है जीवन मैंने

3.
बाबूजी पैदा हुए थे
क्या कर गए ?
कॉलेज में पढ़े
नौकरी की
इधर का उधर किया
पेंशन ली
और मर गए ।

बाबूजी पैदा हुए थे
क्या कर गए !

4.
हम हैं असली इन्सान
मिट्टी में, गारे में, पुर्जों में
घिसटते रहना भी कोई ज़िंदगी है !
देखो, उनके पास
शानदार कोठी है, कार है...

आलीशान बंगलों में
बन्द होके रहना
किसी से सुनना न कहना भी
कोई जिंदगी है !
देखो, वे मेहनत करते हैं
मिट्टी में कितनी
खुली तरह जीते हैं.....

हम हैं असली इन्सान
दोनों से अलग
ज़िंदगी, गति, इतिहास से बचते हुए
इस ज़मी के मेहमान ! 


-अशोक भाटिया