Tuesday, October 7, 2014

ज़माने को बदलना है

मजूर ! किसान !
वतन के नवजवान !
तुझे सितम की सरहदों के पार अब निकलना है !
' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

ये जिनकी साँस-साँस में तड़प रही हैं बिजलियाँ
उन्हीं को मिल रही हैं रोज़ लाख-लाख धमकियाँ
डर है उनले लब पे भूख का सवाल आए ना
कि उनकी धमनियों में ख़ून का उबाल आए ना
कहीं ज़बाँ  खोल दें
ये सच कहीं  बोल दें
हुकुमतों की ख़ैर-ख़्वाहियत को यों ही पलना है !
राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

यहाँ पे मुद्दतों से आदमी ने है अश्क पिया
रहम करेंगे लोग इस उम्मीद पर बहुत जिया
मगर सवाल पेट का बिना जवाब के रहा
किसी ने कुछ नहीं सुना, किसी ने कुछ नहीं कहा
तो उसने सर उठा लिया
नया बिगुल बजा दिया
उसी बिगुल की धुन में तेरे सुर को आज ढलना है !
' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

ये आदमी की शक्ल में भटकते लोग कौन हैं ?
क़दम-क़दम से खौफ़ से अटकते लोग कौन हैं ?
जिनके बाग़ में उम्मीद की कोई कली खिली !
अँधेरा पी के मर गए मगर रोशनी मिली !
उन्हीं का ख़्वाब तू भी है
पसीना और लहू भी है
उन्हीं की यादगार का चिराग़ बन के जलना है !
' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

सुबह की रोशनी से जिसने इनको काट रक्खा है
दिलों की वादियों को साजिशों से बाँट रक्खा है
सड़क पे खींच ला कि अब उसे सबक सिखा दे तू
वतन परस्त ! इंकलाब करके अब दिखा दे तू
' सच है इस 'जनून' से
शहीद ! तेरे ख़ून से
समन्दरे-निज़ाम को उबलना है ! उबलना है !
' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

ज़मीं के पूत से ज़मीन छी ली गई यहाँ
जला उसी का घर, पड़ी उसी के पाँव बेड़ियाँ
हुक़ूक मिल सके नहीं कभी अमन के रास्ते
कभी नहीं रही ज़मीन कायरों के वास्ते
'लहू-लहू' के राग में
जवाँ दिलों की आग में
हर इक चटाने-ज़ुल्म को पिघलना है ! पिघलना है !
' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

बहे अगर ख़िलाफ़ तो हवा का रुख़ बदल दे तू
जो साँप फन उठाते हैं तो उनका फन कुचल दे तू
जो हाथ तेरे हाथ से जुदा हैं उनको काट दे
ज़रूरतन ज़मीं को सरों से दोस्त पाट दे
तुझी को यह भी करना है !
कि ख़ुद ख़ुद उबरना है !
बहुत गिरा है तू कि अब सम्हलना है ! सम्हलना है !
' राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
                           ज़माने को बदलना है !

                           ज़माने को बदलना है !
-शलभ श्रीराम सिंह