मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए !!
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने
सब सच्चे लगते हैं
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है
मैं कुछ गहरे मे उतरना चाहता हूँ
जाने क्या मिल जाए !!
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है
हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य-पीड़ा है
पलभर मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ
प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूँ
इस तरह खुद ही को दिए-दिए फिरता हूँ
अजीब है जिंदगी !!
बेवकूफ बनने की खतिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ
और यह देख-देख बड़ा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ
हृदय में मेरे ही
प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है
हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण,मत्त हुआ जाता है
कि जगत्..... स्वायत्त हुआ जाता है।
कहानियाँ लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहाँ जरा खड़े होकर
बातें कुछ करता हूँ
......उपन्यास मिल जाते।
दुख की कथाएँ, तरह तरह की शिकायतें
अहंकार विश्लेषण, चारित्रिक आख्यान,
जमाने के जानदार सूरे व आयतें
सुनने को मिलती हैं !
कविताएँ मुसकरा लाग- डाँट करती हैं
प्यार बात करती हैं।
मरने और जीने की जलती हुई सीढ़ियां
श्रद्धाएँ चढ़ी हैं !!
घबराए प्रतीक और मुसकाते रूप- चित्र
लेकर मैं घर पर जब लौटता.....
उपमाएँ द्वार पर आते ही कहती हैं कि
सौ बरस और तुम्हें
जीना ही चाहिए।
घर पर भी,पग-पग पर चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए रोज मिलती है सौ राहें
शाखाएँ-प्रशाखाएँ निकलती रहती हैं
नव-नवीन रूप-दृश्यवाले सौ-सौ विषय
रोज-रोज मिलते हैं....
और,मैं सोच रहा कि
जीवन में आज के
लेखक की कठिनाई यह नहीं कि
कमी है विषयों की
वरन् यह कि आधिक्य उनका ही
उसको सताता है
और वह ठीक चुनाव कर नहीं पाता है !!
- मुक्तिबोध
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