Thursday, January 31, 2013

हरकारा


हरकारा दौड़ चला, दौड़ चला,
बजती है रात में इसीलिए घण्टी की रुनझुन !
हरकारा चल दिया बोझ लिए ख़बरों का हाथ में ।
हरकारा चल दिया है, हरकारा,
रात की राहों में चलता है हरकारा, मानता नहीं वह निषेध कोई मन में,
दिग से दिगन्त तक दौड़ चला हरकारा,
नयी ख़बर लाने का ज़िम्मा है उस पर ।

हरकारा ! हरकारा !
जाने-अनजाने का
बोझ आज काँधे पर
चल रहा है हरकारा चिट्ठी और ख़बरों से लदा हुआ जहाज़ एक,
हरकारा चल रहा है, शायद हो जाए भोर ।
और भी तेज़ी से, और भी तेज़ी से, यह हरकारा दुर्जय दुर्वार आज,
उसके जीवन के सपने सरीखा सरकता है वन, पीछे छूटता ।
बाक़ी है, शेष है राह अभी - होता है लाल शायद पूरब का वह कोना ।
नि:स्तब्ध रात के सितारे झमकते हैं नभ में,
कितनी तेज़ी से भागता है यह हरकारा हिरन की तरह ।
कितने गाँव, कितने रास्ते छूट-छूट जाते हैं
हरकारा भोर में पहुँच ही जाएगा शहर ।
हाथ की लालटेन करती है टुन-टुन-टुन जुगनू देते हैं आकाश,
डरो मत हरकारे ! रात की कालिमा से अब भी भरा है आकाश !

इसी तरह जीवन के बहुत-से वर्षों को पीछे छोड़ कर,
पृथ्वी का बोझ भूखे हरकारे ने पहुँचा दिया "मेल" पर,
थकी हुई साँस से छुआ है आकाश, भीगी है मिट्टी पसीने से,
जीवन की सारी रातें ख़रीदीं हैं उन्होंने बहुत सस्ते में ।
बड़े दुख में, वेदना में, अभिमान और अनुराग से
घर में उसकी प्रिया जागती है अकेली उनींदे बिस्तर पर ।
रानार ! रानार !
कब होंगे शेष ये बोझ ढोने के दिन
कब बीतेगी रात, उदित होगा सूरज?
घर में है अभाव, इसीलिए पृथ्वी लगती है काला धुआँ
पीठ पर रुपयों का बोझ, फिर भी यह धन कभी नहीं जायेगा छुआ,
निर्जन है रात, रास्ते में हैं कितनी ही आशंकाएँ, फिर भी दौड़ता है हरकारा ।
डाकू का डर है, उससे भी ज़्यादा डर जाने कब सूरज उग आए
कितनी चिट्ठियाँ लिखते हैं लोग -
कितनी सुख में, प्रेम में, आवेग में, स्मृति में, कितने दुख और शोक में,
मगर इसके दुख की चिट्ठी मैं जानता हूँ कोई कभी नहीं पढ़ पाएगा,
इसके जीवन का दुख जानेगी सिर्फ़ रास्ते की घास,
इसके दुख की कथा नहीं जानेगा कोई शहर और गाँव में,
इसकी कथा ढँकी रह जाएगी रात के काले लिफ़ाफ़े में।
हमदर्दी से तारों की आँखें टिमटिमाती हैं -
यह कौन है जिसे भोर का आकाश भेजेगा सहानुभूति की चिट्ठी -
रानार ! रानार ! क्या होगा यह बोझा ढो कर ?
क्या होगा भूख की थकान में क्षय हो -हो कर ?
रानार ! रानार ! भोर तो हुई है - आकाश हो गया है लाल,
उजाले के स्पर्श से कब कट जायेगा यह दुख का काल ?

हरकारे ! गाँव के हरकारे !
समय हुआ है नई ख़बर लाने का ।
शपथ की चिट्ठी ले चलो आज,
कायरता को पीछे छोड़,
पहुँचा दो यह नई ख़बर
प्रगति की ’मेल‘ में ।
दिखेगा शायद अभी-अभी प्रभात
नहीं, देर मत करो और,
दौड़ चलो, दौड़ चलो और तेज़ी से
ओ दुर्दम हरकारे !

-सुकान्त भट्टाचार्य
(मूल बंगला से अनुवाद : नीलाभ)

Monday, January 21, 2013

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग


मैने समझा था कि तू है तो दरख़्शां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया मे रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
यूँ न था, मैने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये 

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 

अनगिनत सदियों से तारीक़ बहीमाना तिलिस्म
रेशमो-अतलसो-किमख़्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ए-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून मे नहलाये हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे 

और भी दुख हैं ज़माने मे मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की रहत के सिवा 

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग

-फैज अहमद 'फैज'
-------------------------------------------------------------------------
दरख़्शां = प्रकाशमान,  हयात = जीवन,  ग़मे-दहर = सांसारिक चिंताएँ, 
आलम = दुनिया, सबात = स्थायित्व, निगूँ = तक़दीर सिर झुका ले
फ़क़त = केवल, राहत = सुख, वस्ल = मिलन
तारीक़ बहीमाना तिलिस्म = प्राचीन अज्ञानपूर्ण अंधविश्वास रूपी तिलिस्म
रेशमो-अतलसो-किमख़्वाब = एक प्रकार के कीमती वस्त्र
अमराज़ के तन्नूर = शरीर रूपी तंदूर से रोग के कारण निकले हुए
नासूर = घाव, दिलकश = आकर्षक