Friday, February 24, 2012

तय किए सौ रास्ते

एक बेहतर ज़िन्दगी के वास्ते

वक़्त के कितने थपेड़े
जिस्म पर सहते रहे
हर घड़ी पाबन्दियों में
कुछ न कुछ कहते रहे

एक छोटी-सी उमर में
तय किए सौ रास्ते

सिर्फ़ 'मैं' को 'हम'
बनाने के लिए चलते रहे
दूरवर्ती कहकहों की
आँच में जलते रहे

आदमी ढूँढ़ा किए हम
धूल-धक्कड़ फाँकते

एक बेहतर ज़िन्दगी के वास्ते



-रमेश रंजक

परदे के पीछे

परदे के पीछे मत जाना मेरे भाई !
टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे, बैठे हुए कसाई ।

बड़े-बड़े अफ़सर बैठे हैं
माल धरे तस्कर बैठे हैं
बैठे हैं कुबेर के बेटे
ऐश लूटते लेटे-लेटे
नंगी कॉकटेल में नंगी नाच रही गोराई ।

इधर बोरियों की कतार है
पतलूनों में रोज़गार है
बड़े-बड़े गोदाम पड़े हैं
जिन पर नमक हराम खड़े हैं
परदे के बाहर पहरे पर आदमक़द महँगाई ।

जिसने उधर झाँककर देखा
उसकी खिंची पीठ पर रेखा
काया लगने लगी गिलहरी
ख़ून गिरा पी गई कचहरी
ऐसा क़त्ल हुआ चौरे में लाश न पड़ी दिखाई ।

तेरी क्या औक़ात बावले
जो परदे की ओर झाँकले
ये परदा इस-उसका चंदा
समझौतों का गोल पुलंदा
ऐसा गोरखधंधा जिसकी नस-नस में चतुराई ।

जो इक्के-दुक्के जाएँगे
वापस नहीं लौट पाएँगे
जाना है तो गोल बना ले
हथियारों पर हाथ जमा ले
ऐसा हल्ला बोल कि जागे जन-जन की तरुणाई ।



-रमेश रंजक

मरने दे बन्धु !

मरने दे बन्धु!
उसे मरने दे

एक रोगी की तरह जो दोस्ती
रोज़ खाती है दवाई चार सिक्के की
और फिर चलती बड़े अहसान से
चाल इक्के की
जो अँगूठी
रोज़ उँगली में करकती है
उतरने दे

मोल के ये दिन, मुलाक़ातें गरम
सामने भर का घरेलूपन
चाय-सी ठंडी हँसी, आँखें तराजू,
एक टुकड़ा मन
खोलने इस बन्दगोभी को
एक दिन तो बात करने दे

मरने दे बन्धु!
अरे! मरने दे 



-रमेश रंजक

जंगल का गीत

बचकर कहाँ चलेगा पगले, चारों ओर मचान है
हर मचान पर एक शिकारी, आँखों में शैतान है !

हवा धूल में बटमारीपन, छाया की तासीर गरम
सरमायेदारों के कपड़े, पहने घूम रहा मौसम
नद्दी-नालों की ज़ंजीरें हरियल टहनीदार नियम
न्यायाधीश पहाड़ मौन हैं, खा-पीकर रिश्वती रकम
सत्ता के जंगल की पत्ती-पत्ती बेईमान है !

चारों ओर अंधेरा गहरा, पहरा है संगीन का
महंगाई ने हाँका मारा, बजा कनस्तर टीन का
जिनको पाँव मिले वे भागे, पंजा पड़ा मशीन का
जहाँ बचाएँ प्राण, नहीं रे ! टुकड़ा मिला ज़मीन का
कहाँ छुपाएँ अंडे-बच्चे हर प्राणी हैरान है !

पहले पूरब फिर पच्छिम में, गोली चली मचान से
दक्खिन थर-थर काँपा, उत्तर चीख़ पड़ा जी-जान से
सिसकी लेकर मध्यम धरती, बोली दबी ज़ुबान से
राम बचाए, राम बचाए, ऐसे हिन्दुस्तान से
लाठी, गोली, अश्रु-गैस, जीना क्या आसान है ?
रचनाकाल : 12 सितम्बर 1975



-रमेश रंजक

Thursday, February 23, 2012

1857 : सामान की तलाश

1857 की लड़ाइयां जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयां हैं

ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
हर गलती अपनी ही की हुई लगती है
सुनायी दे जाते हैं ग़दर के नगाडे और
एक ठेठ हिन्दुस्तानी शोरगुल
भयभीत दलालों और मुखबिरों की फुसफुसाहटेँ
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलकदमी

हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और
व्यावसायिक सिनेमा का असर हो

पर यह उन 150 करोड़ रुपयों के शोर नहीं
जो भारत सरकार ने `आजादी की पहली लड़ाई' के
150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किये हैं
उस प्रधानमंत्री के कलम से जो आजादी की हर लड़ाई पर
शर्मिंदा है और माफी मांगता है पूरी दुनिया में
जो एक बेहतर गुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी
कुर्बान करने को तैयार है

यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला है था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बन्किमों और अमीचंदों और हरिश्न्द्रों
और उनके वंशजों ने
जो खुद एक बेहतर गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रनाथों, इश्वरचंद्रों, सय्यद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलिशरणों और रामचन्द्रों के मन में
और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल बाद सुभद्रा को ही आयी

यह उस सिलसिले की याद है जिसे
जिला रहे हैं अब 150 साल बाद आत्महत्या करते हुए
इस ज़मीन के किसान और बुनकर
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है
और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और
राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की खुराक बनते हुए
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर
सामूहिक कब्रों और मरघटों की तरफ
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?

1857 में मैला-कुचैलापन
आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है

लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
किसी और युग में किन्ही और हथियारों से
कई दफे तो वे मैले-कुचैले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से
जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज्यादा मृत हैं
पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम
या हमदर्द समझकर बताने लगते हैं अब मैं नज़फगढ़ की तरफ जाता हूँ
या ठिठककर पूछने लगते हैं बख्तावारपुर का रास्ता
1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे
और हम उनके लिए कैसे मरते थे

कुछ अपनी बताओ

क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय। 



-असद ज़ैदी