उड़ गए है बाज़ चोचों में लेकर
हमारी चैन से एक पल बिता सकने की ख़वाहिश
दोस्तों , अब चला जाये
उड़ते हुए बाजों के पीछे ...
यहाँ तो पता नही कब आ धमकें
लाल पगड़ियों वाले आलोचक
और शुरू कर दें
कविता की दाद देनी
इससे पहले
की फ़ैल जाये थाने की रोज़ फैलती इमारत
तुम्हारे गाँव , तुम्हारे परिवार तक
और सलग्न हो जाए
आत्मसम्मान का कांपता हुआ पृष्ठ
उस छुरी मुखवाले मुंशी के रोजनामचे में-
दोस्तों , अब चला जाये
उड़ते हुए बाजों के पीछे ...
यह तो सारी उम्र ना उतरेगा
बहनों के ब्याहों पर उठाया क़र्ज़
खेतों में छिडकें खून का
हर कतरा भी इकठ्ठा कर
इतना रंग न बनेगा
कि चित्रित कर लेंगे, एक शांत
मुस्कुराते हुए इंसान का चेहरा
और फिर
जिंदगी की पूरी राते भी गिनते चलें
सितारों की गिनती न हो पाएगी
क्योंकि हो नहीं सकेगा यह सब
फिर दोस्तों , अब चला जाये
उड़ते हुए बाजों के पीछे ...
यदि आपने महसूस की हो
गंड में जम रहे गर्म गुड़ की महक
और देखा हो
जोती हुई गीली ज़मीन का
चाँद की चांदनी में चमकना
तो आप सब जरुर कुछ इंतजाम करो
लपलपाते हुए मतपत्र का
जो लार टपका रहा है
हमारे कुओं की हरयाली पर
जिन्होंने देखे हैं
छतों पर सूखते सुनहरे भुट्टे
और नहीं देखे
मंडियों में सूखते दाम
वे कभी न समझ पायेंगे
कि कैसे दुश्मनी है
दिल्ली की उस हुक्मरान औरत की
नंगे पावों वाली गाँव की उस सुंदर लड़की से
सुरंग- जैसी जिंदगी में चलते हुए
जब लौट आती है
अपनी आवाज़ खुद के ही पास
और आँखों में चुभते रहते
बूढ़े बैल के उचड़े कानों- जैसे सपने
जब चिमट जाये गलियों का कीचड़
उम्र के सबसे हसीन सालों से
तो करने को बस यही बचता है
की चला जाये
उड़ते हुए बाजों के पीछे...
-अवतार सिंह 'पाश'
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