Wednesday, August 7, 2019

शिद्दतपसंद

मुझे यकीन था कि मज़हबों से
कोई भी रिश्ता नहीं है उनका
मुझे यकीन था कि उनका मज़हब
है नफरतों की हदों के अंदर
मुझे यकीन था वो ला-मज़हब हैं,
या उनके मज़हब का नाम हरगिज़
सिवाये शिद्दत के कुछ नहीं है,

मगर ऐ हमदम
यकीन तुम्हारा जो डगमगाया,
तो कितने इंसान जो हमवतन थे,
जो हमसफर थे,
जो हमनशीं थे,
वो ठहरे दुश्मन
तलाशे दुश्मन जो शर्त ठहरी
तो भूल बैठे,
के मज़हबों से
कोई भी रिश्ता नहीं है उनका,
कि जिसको ताना दिया था तुमने,
के उसके मज़हब की कोख कातिल उगल रही है,
वो माँ कि जिसका जवान बेटा,
तुम्हारे वहम-ओ-गुमाँ की आँधी में गुम हुआ है,
तुम्हारे बदले कि आग जिसको निगल गई है,
वो देखो अब तक बिलख रही है,

वो मुन्तजि़र है
कोई तो काँधे पर हाथ रखे
कहे कि हमने भी कातिलों की कहानियों पर
यकीन किया था,
कहे कि हमने गुनाह किया था,
कहे कि माँ हमको माफ कर दो,
कहे कि माँ हमको माफ कर दो।

--गौहर रज़ा

(मक्का मस्जिद केस में पकड़े गए बेकुसूर नौजवानों के छूटने पर)

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