Sunday, October 28, 2012

नींद में डूबी हुई कमजोरियाँ


नींद में
डूबी हुई कमज़ोरियाँ
अचानक सातवें स्वर में
जब फूटती हैं
और घर की रोशनी का आँचल पकड़ कर
ज़र्द चेहरे
भूख की दुर्गध लेकर डोलते हैं-
हम समझते हैं-
यही है भोर की बेला !
बन-पाखियों के स्वर,
प्रभाती लोरियाँ
सारंग की भीनी पखावज,
गुलाबों सी महकती सुबह
फिर किस दिशा से झांकती है?
खीज का सूरज
जब तमतमाता है,
गीले कोलतार की सड़क पर
पांव दगते हैं,
कोरे कागजों पर
इतिहास की संज्ञा लगाती
लेखनी को
थकन जब घेर लेती है,
और जब अभावों के आँगन
नमकीन पानी के
बादल बरसते हैं,
हम समझते हैं-
इसी का नाम सावन है !
पनघटों पर पायली झंकार,
केवल एक बून्द की प्यासी
कोई चातकी मनुहार,
गहराई घटाओं से
रिमझिम बरसता सावन
फिर कौन से आकाश आता है !
सांस-
जब बीमार यादों पर
कफ़न ढालती है,
दूरियों को
जो तीरथ समझकर पूजती है,
धूप को
जो साथ चलने के लिए आवाज़ देती है
हम समझते हैं-
यही है ज़िन्दगी !
फिर किस ज़िन्दगी की बात करते हो ?

-हरीश भादानी

यह धरती बहुत मैली हो गई है दोस्त!


यह धरती
बहुत मैली हो गई है दोस्त !

हर एक बरखा बाद
पहले से अधिक
दल-दल, ढहे और खंडहर दीखते हैं,
और पानी
खंड-खोहों में सिमट कर बदलता है स्वाद
जन्म देता
घड़ियालों, मगरमच्छों
बड़े मुँह की मछलियों को,
और फिर पानी कहाँ से लाए आदमी
यह धरती धोने के लिए
जो पहले से अधिक मैली
बहुत मैली हो गई है दोस्त !

अनेको बार
यह धरती धोई गई है खून से
सूख कर गीली सुर्खियाँ
स्याद पतैं बन गई हैं,
फट गई दरारों में उगी है घास,
यह धरती पहले से अधिक भद्दी
बहुत भद्दी हो गई है दोस्त !
दिन-ब-दिन
बढ़ती हुई यह गन्दगी
धोई नहीं गई शायद कभी भी आग से
इसे हम
आग से धाएँ, हमारे दोस्त !

इस तरह साँसें कि-
लपटें फैलती आएँ दिशाओं में,
हम ईधन झांकते जाएँ
और फिर
पेशानियों से बरस जाए
एक बरखा
भीगी-भीगी, सांवली सपाट माटी
मुट्ठियों में भरे,
खूबसूरत कोंपलों को
फूटते देखें हमारी हसरतें
और इन हसरतों की ही खातिर,
आ यह धरती
आग से धोएँ हमारे दोस्त
जो पहले से अधिक मैंली
बहुत मैली हो गई है !

-हरीश भादानी

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे


देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे

अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे

नेज़े पे रखके और मेरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखाई दे

दिल में तेरे ख़याल की बनती है एक धनक
सूरज सा आइने से गुज़रता दिखाई दे

चल ज़िंदगी की जोत जगाएं, अजब नहीं
लाशों के दरमियां कोई रस्ता दिखाई दे

हर शै मेरे बदन की ज़फ़र क़त्ल हो चुकी
एक दर्द की किरन है कि ज़िंदा दिखाई दे

- ज़फ़र गोरखपुरी

Saturday, October 27, 2012

मुझे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं


मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए !!

एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने
सब सच्चे लगते हैं
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है
मैं कुछ गहरे मे उतरना चाहता हूँ
जाने क्या मिल जाए !!

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है
हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य-पीड़ा है
पलभर मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ
प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूँ
इस तरह खुद ही को दिए-दिए फिरता हूँ
अजीब है जिंदगी !!
बेवकूफ बनने की खतिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ
और यह देख-देख बड़ा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ
हृदय में मेरे ही
प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है
हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण,मत्त हुआ जाता है
कि जगत्..... स्वायत्त हुआ जाता है।

कहानियाँ लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहाँ जरा खड़े होकर
बातें कुछ करता हूँ
......उपन्यास मिल जाते।

दुख की कथाएँ, तरह तरह की शिकायतें
अहंकार विश्लेषण, चारित्रिक आख्यान,
जमाने के जानदार सूरे व आयतें
सुनने को मिलती हैं !

कविताएँ मुसकरा लाग- डाँट करती हैं
प्यार बात करती हैं।
मरने और जीने की जलती हुई सीढ़ियां
श्रद्धाएँ चढ़ी हैं !!

घबराए प्रतीक और मुसकाते रूप- चित्र
लेकर मैं घर पर जब लौटता.....
उपमाएँ द्वार पर आते ही कहती हैं कि
सौ बरस और तुम्हें
जीना ही चाहिए।
घर पर भी,पग-पग पर चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए रोज मिलती है सौ राहें
शाखाएँ-प्रशाखाएँ निकलती रहती हैं
नव-नवीन रूप-दृश्यवाले सौ-सौ विषय
रोज-रोज मिलते हैं....
और,मैं सोच रहा कि
जीवन में आज के
लेखक की कठिनाई यह नहीं कि
कमी है विषयों की
वरन् यह कि आधिक्य उनका ही
उसको सताता है
और वह ठीक चुनाव कर नहीं पाता है !!

- मुक्तिबोध