Sunday, February 17, 2013

दीवारें दीवारें दीवारें दीवारें


दीवारें दीवारें दीवारें दीवारें
चारों ओर खड़ी हैं । तुम चुपचार खड़े हो
हाथ धरे छाती पर , मानो वहीं गड़े हो।

मुक्ति चाहते हो तो आओ धक्‍के मारें
और ढ़हा दें । उद्यम करते कभी न हारें
ऐसे वैसे आघातों से । स्‍तब्‍ध पड़े हो
किस दुविधा में।हिचक छोड़ दो। जरा कड़े हो।

आओ , अलगाने वाले अवरोध निवारें।
बहार सारा विश्‍व खुला है , वह अगवानी
करने को तैयार खड़ा है पर यह कारा
तुमको रोक रही है। क्‍या तुम रूक जाओगे।

नहीं करोगे ऊंची क्‍या गरदन अभिमानी।
बांधोगे गंगोत्री में गंगा की धारा।
क्‍या इन दीवारों के आगे झुक जाओगे।

-त्रिलोचन

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