Wednesday, August 7, 2019

साजिश


(उन्नाव की उस बेटी के नाम
जो कातिलों से ही नहीं
मौत से भी लड़ रही है.)

जब साज़िश, हादसा कहलाये
और साज़िश करने वालों को
गद्दी पे बिठाया जाने लगे
जम्हूर का हर एक नक़्श-ऐ -क़दम
ठोकर से मिटाया जाने लगे
जब ख़ून से लथपथ हाथों में
इस देश का परचम आ जाए
और आग लगाने वालों को
फूलों से नवाज़ा जाने लगे
जब कमज़ोरों के जिस्मों पर
नफ़रत की सियासत रक़्स करे
जब इज़्ज़त लूटने वालों पर
ख़ुद राज सिंहासन फ़ख्र करे
जब जेल में बैठे क़ातिल को
हर एक सहूलत हासिल हो
और हर बाइज़्ज़त शहरी को
सूली पे चढ़ाया जाने लगे
जब नफ़रत भीड़ के भेस में हो
और भीड़, हर एक चौराहे पर
क़ानून को अपने हाथ में ले
जब मुंसिफ़ सहमे, सहमे हों
और माँगे भीख हिफ़ाज़त की
ऐवान-ए-सियासत में पहम
जब धर्म के नारे उट्ठने लगे
जब मंदिर, मस्जिद, गिरजा में
हर एक पहचान सिमट जाए
जा लूटने वाले चैन से हों
और बस्ती, बस्ती भूख उगे
जब काम तो ढूँढें हाथ, मगर
कुछ हाथ ना आए, हाथों के
और ख़ाली, ख़ाली हाथों को
शमशीर थमाई जाने लगे
तब समझो हर एक घटना का
आपस में गहरा रिश्ता है
यह धर्म के नाम पे साज़िश है
और साज़िश बेहद गहरी है
तब समझो, मज़हब-ओ-धर्म नहीं
तहज़ीब लगी है दांव पर
रंगों से भरे इस गुलशन की
तक़दीर लगी है दांव पर
उट्ठो के हिफ़ाज़त वाजिब है
तहज़ीब के हर मैख़ाने की
उट्ठो के हिफ़ाज़त लाज़िम है
हर जाम की, हर पैमाने की.


--गौहर रज़ा

शिद्दतपसंद

मुझे यकीन था कि मज़हबों से
कोई भी रिश्ता नहीं है उनका
मुझे यकीन था कि उनका मज़हब
है नफरतों की हदों के अंदर
मुझे यकीन था वो ला-मज़हब हैं,
या उनके मज़हब का नाम हरगिज़
सिवाये शिद्दत के कुछ नहीं है,

मगर ऐ हमदम
यकीन तुम्हारा जो डगमगाया,
तो कितने इंसान जो हमवतन थे,
जो हमसफर थे,
जो हमनशीं थे,
वो ठहरे दुश्मन
तलाशे दुश्मन जो शर्त ठहरी
तो भूल बैठे,
के मज़हबों से
कोई भी रिश्ता नहीं है उनका,
कि जिसको ताना दिया था तुमने,
के उसके मज़हब की कोख कातिल उगल रही है,
वो माँ कि जिसका जवान बेटा,
तुम्हारे वहम-ओ-गुमाँ की आँधी में गुम हुआ है,
तुम्हारे बदले कि आग जिसको निगल गई है,
वो देखो अब तक बिलख रही है,

वो मुन्तजि़र है
कोई तो काँधे पर हाथ रखे
कहे कि हमने भी कातिलों की कहानियों पर
यकीन किया था,
कहे कि हमने गुनाह किया था,
कहे कि माँ हमको माफ कर दो,
कहे कि माँ हमको माफ कर दो।

--गौहर रज़ा

(मक्का मस्जिद केस में पकड़े गए बेकुसूर नौजवानों के छूटने पर)

सुबह

सुना है रात के परदे में सुबह सोती है
सवेरा उठ के दबे पाँव आएगा हम तक
हमारे पाँव पे रखेगा भीगे, भीगे फूल
कहेगा उठो के अब तीरगी का दौर गया
बहुत से काम अधूरे पड़े हैं, करने हैं
इन्हें समेट के राहें नई तलाश करो

नहीं, यकीन करो,
यूँ कभी नहीं होता
सवेरा उठ के दबे पाँव
खुद ना आएगा
ना हो जो शम्मा,
तो हरगिज़ सहर नहीं होती
अगर शुआओं के भाले ना हों
हमारा नसीब
तो नहरें दूध की, ख्वाबों में बहती रहती हैं
ज़मीं घूम के सूरज को चूमती है ज़रूर
शुआएँ फटती हैं,
लेकिन सहर नहीं होती

--गौहर रज़ा

गर टूट गए तो हार गए

जब मेरे वतन की गलियों में
ज़ुल्मत ने पंख पसारे थे
और रात के काले बादल ने
हर शहर में डेरा डाला था
जब बस्ती-बस्ती दहक उठी
यूँ लगता था, सब राख हुआ
यूँ लगता था, महशर है बरपा
और रात के ज़ालिम साए से
बचने का कोई यारा भी ना था
सदियों में तराशा था जिस को
इंसान के अनथक हाथों ने
तहज़ीब के उस गहवारे में
हर फूल दहकता शोला था

जब नाम-ए-खुदा ईंधन की तरह
भट्टी में जलाया जाने लगा
और नेक खुदाके सब बन्दे
मरदूद-ए-हरम ठहराये गए
जब खून की होली, रस्म बनी
और मकतल गाहें आम हुईं
बरबरीयत, वहशत फन ठहरी
इस फन की बज़्में आम हुईं

जब शौहर, बेटे, भाई, पिदर
सब नाम-ए-खुदा के काम आए
आवाज़ थी इक इंसान की भी
इस शोर के बीहड़ जंगल में
जो मिटने को तैयार न थी
जो ज़हनों को गरमाती रही
जो छलनी जिस्म से कहती रही
उठ, हाथ बढ़ा हाथों को पकड़
लाखों हैं यहाँ तेरे जैसे

इस जंग को जारी रखना है
गर टूट गए तो हार गए

--गौहर रज़ा
(अफगानिस्तान में तालिबान के हाथों एक महिला कार्यकर्ता के कत्ल पर)