Friday, December 18, 2020

जाने-अनजाने ग़ुलामी को बजा कहते रहे

 जाने-अनजाने ग़ुलामी को बजा कहते रहे

बरहमी को भी तुम्हारी इक अदा कहते रहे


ख़्वाब के खलिहान में फ़सलें कभी पकती नहीं

बीज छितराने का लेकिन सिलसिला कहते रहे


तन से, मन से और धन से हो सकें आज़ाद सब

हमको ये जुमला बड़ा अच्छा लगा, कहते रहे


इस तरह उसने फँसाया सबको ही मँझधार में

नाख़ुदा था फिर भी सब उसको ख़ुदा कहते रहे


लोग ऐसे ज़ुल्म पर चुप क्यों रहे, ये क्या हुआ

जल गया कश्मीर तो रोशन हुआ कहते रहे


आदमीयत का सफ़र हो ही नहीं पाया तमाम

रहनुमा ग़ुज़रा किये, हम मर्सिया कहते रहे.


--पंकज श्रीवास्तव


बजा- ठीक, दुरुस्त

*बरहमी--अत्याचार, नाराज़गी

*नाख़ुदा- नाविक, जहाज का कप्तान

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