मैं खुद बहुत भ्रमित हूं आजकल
कहीं निकलता हूं और दुश्मन देश पहुंच जाता हूं!
कहीं दिख जाऊं भटकता संदिग्ध तो मुझे मेरे घर
सुरक्षित पहुंचा देना!
क्योंकि यह जो
कविता है न यह
मुझे दुश्मन देशों के किसी और कवि के आंगन में लेे जाने की साज़िश रचती रहती हैं दिन रात!
कल निकला था ब्रेड लेने भटक कर चला गया पड़ोसी देश
दिन भर फ़ैज़ के घर रहा
शाम को हबीब जालिब के घर
रात होते होते नासिर काज़मी
बहका लेे गए मुझे
सुबह परवीन शाकिर के आंगन में बैठा मिला!
वहां से चला गया मैं जॉन एलिया के गोशे में!
कैसे कैसे करके अपने घर लौटा तो
तो पाया कि फ़ैज़ साहब और फिराक
मेरे घर आए हैं!
जोश और निराला आने वाले हैं
अली सरदार और पंत और नजरुल इस्लाम निकल चुके हैं आने के लिए
जिगर मुरादाबादी और इकबाल के साथ!
फरियाद है!
यह कविता मुझे बरबाद करके रखेगी
कई बार दुश्मन देश के कितने ही कवियों को मेरे आंगन में छोड़ जाती है!
अभी अभी मंटो को रुखसत किया है
बेदी और किशन चन्दर और अश्क लेकर गए
रामानंद सागर के साथ!
या सब के सब
पता नहीं गए कि घर के किसी कोने में रह ही गए हों!
इतने अलगौझे के बाद भी
बंद नहीं हो पा रहा यह आना जाना
कुछ करिए!
इस कविता का कोई उपाय
हे सरकार!
यह पूरे देश को बरबादी की ओर लेे जा रही है हर दिन
हमारे नारे चले जाते हैं पड़ोस के देश
उनके गीत इधर अा जाते हैं
चुपके से!
निर्लज्ज मानते ही नहीं
ढीठ हैं बहुत!
कितने रूसी कितने चीनी कितने अफ्रीकी
कितने तुर्की अरबी यूनानी ईरानी
दुनिया भर के कवि लेखक सिनेमा वाले
संगीतकार गायक पेंटर
सब मेला लगाए रहते हैं
सब मेरे घर में रहते हैं!
जब की नागरिकता इतनी मुश्किल हो गई है
पूरे संसार में
कागज कागज का हल्ला है
मैं संदिग्ध नागरिकता के साथ मारा नहीं जाना चाहता बेगाने मुल्क में।
और यह भी नहीं चाहता की कोई विदेशी कवि लेखक कलाकार मेरे आंगन में गिरफ्तार होकर अभिशप्त जीवन जिए
आपके यातना शिविरों में!
पहरे बढ़ाओ इस कविता पर
इसको रोको
लोगों का रास्ता भुला देती है यह!
इसका कुछ तो उपाय करो सरकार!
--बोधिसत्व, मुंबई
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