Monday, March 26, 2012

गाँव-घर का नज़ारा तो अच्छा लगा

गाँव-घर का नज़ारा तो अच्छा लगा
सबको जी भर निहारा तो अच्छा लगा।

गर्म रोटी के ऊपर नमक-तेल था
माँ ने हँसकर दुलारा तो अच्छा लगा।

अजनबी शहर में नाम लेकर मेरा
जब किसी ने पुकारा तो अच्छा लगा।

एक लड़की ने बिख़री हुई जु़ल्फ़ को
उँगलियों से सँवारा तो अच्छा लगा।

हर समय जीतने का चढ़ा था नशा
अपने बेटे से हारा तो अच्छा लगा।

रेत पर पाँव जलते रहे देर तक
जब नदी ने पखारा तो अच्छा लगा।

एक खिड़की खुली एक परदा उठा
झिलमिलाया सितारा तो अच्छा लगा।

दो हृदय थे उफ़नता हुआ सिन्धु था
बह चली नेह-धारा तो अच्छा लगा।

चाँद-तारों की फूलों की चर्चा चली
ज़िक्र आया तुम्हारा तो अच्छा लगा।

-वशिष्ठ अनूप

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