Monday, March 26, 2012

ये क्या हो गया है हमारे शहर को।

जलाते हैं अपने पड़ोसी के घर को
ये क्या हो गया है हमारे शहर को।

समन्दर का पानी भी कम ही पडेगा
जो धुलने चले रक्तरंजित नगर को।

सम्हालो ज़रा सिर फिरे नाविकों को
ये हैं मान बैठे किनारा भँवर को।

मछलियों को कितनी गल़तफह़मियाँ हैं
समझने लगीं दोस्त खूनी मगर को।

दिखा चाँद आरै ज्वार सागर में आया
कोई रोक सकता है कैसे लहर को।

मैं डरता हूँ भोली निगाहों से तेरी
नज़र लग न जाये तुम्हारी नज़र को।

परिन्दो के दिल में मची खलबली है
मिटाने लगे लोग क्यों हर शज़र को।

समन्दर के तूफां से वो क्या डरेंगे
चले ढूंढने हैं जो लालो-गुहर को।

उठो और बढ़ो क्योंकि हमको यकीं है
हमारे कदम जीत लेंगे सफर को।

-वशिष्ठ अनूप

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