Tuesday, October 11, 2011

माँ


बच्चों पे चली गोली
माँ देख के यह बोली
यह दिल के मेरे टुकड़े
यूँ रोए मेरे होते
मैं दूर खड़ी देखूँ
ये मुझ से नहीं होगा


मैं दूर खड़ी देखूँ
और अहल-ए सितम खेलें
ख़ून से मेरे बच्चों के
दिन-रात यहाँ होली
बच्चों पे चली गोली
माँ देख के यह बोली
यह दिल के मेरे टुकड़े
यूँ रोए मेरे होते
मैं दूर खड़ी देखूँ
ये मुझ से नहीं होगा


मैदान में निकल आई
इक बर्क़-सी लहराई
हर दस्त-ए सितम कपड़ा
बंदूक भी ठहराई
हर सिम्त सदा गूँजी
मैं आती हूँ, मैं आई
मैं आती हूँ, मैं आई


हर ज़ुल्म हुआ बातिल
और सहम गए क़ातिल
जब उसने ज़बाँ खोली
बच्चों पे चली गोली
उस ने कहा ख़ून ख़्वारो !
दौलत के परस्तारो
धरती है यह हम सब की
इस धरती को नादानो
अंग्रेज़ों के दरबानो !
साहेब की अता करदाह
जागीर न तुम जानो
इस ज़ुल्म से बाज़ आओ
बैरक में चले जाओ
क्यों चंद लुटेरों की
फिरते हो लिए टोली 
बच्चों पे चली गोली


-हबीब जालिब

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