Tuesday, October 11, 2011

दस्तूर


 दीप जिसका महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर हर मसलहत के पले

ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़ियार से
क्यूँ डराते हो जिन्दाँ की दीवार से

ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो

इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

तूमने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूँ
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर

मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता


-हबीब जालिब

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