Thursday, October 24, 2013

ॐ श‌ब्द ही ब्रह्म है..

ॐ श‌ब्द्, और श‌ब्द, और श‌ब्द, और श‌ब्द
ॐ प्रण‌व‌, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें
ॐ व‌क्तव्य‌, ॐ उद‌गार्, ॐ घोष‌णाएं
ॐ भाष‌ण‌...
ॐ प्रव‌च‌न‌...
ॐ हुंकार, ॐ फ‌टकार्, ॐ शीत्कार
ॐ फुस‌फुस‌, ॐ फुत्कार, ॐ चीत्कार
ॐ आस्फाल‌न‌, ॐ इंगित, ॐ इशारे
ॐ नारे, और नारे, और नारे, और नारे

ॐ स‌ब कुछ, स‌ब कुछ, स‌ब कुछ
ॐ कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं
ॐ प‌त्थ‌र प‌र की दूब, ख‌रगोश के सींग
ॐ न‌म‌क-तेल-ह‌ल्दी-जीरा-हींग
ॐ मूस की लेड़ी, क‌नेर के पात
ॐ डाय‌न की चीख‌, औघ‌ड़ की अट‌प‌ट बात
ॐ कोय‌ला-इस्पात-पेट्रोल‌
ॐ ह‌मी ह‌म ठोस‌, बाकी स‌ब फूटे ढोल‌

ॐ इद‌मान्नं, इमा आपः इद‌म‌ज्यं, इदं ह‌विः
ॐ य‌ज‌मान‌, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ क‌विः
ॐ क्रांतिः क्रांतिः स‌र्व‌ग्वंक्रांतिः
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः स‌र्व‌ग्यं शांतिः
ॐ भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः स‌र्व‌ग्वं भ्रांतिः
ॐ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ
ॐ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ
ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
ॐ निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ

ॐ द‌लों में एक द‌ल अप‌ना द‌ल, ॐ
ॐ अंगीक‌रण, शुद्धीक‌रण, राष्ट्रीक‌रण
ॐ मुष्टीक‌रण, तुष्टिक‌रण‌, पुष्टीक‌रण
ॐ ऎत‌राज़‌, आक्षेप, अनुशास‌न
ॐ ग‌द्दी प‌र आज‌न्म व‌ज्रास‌न
ॐ ट्रिब्यून‌ल‌, ॐ आश्वास‌न
ॐ गुट‌निरपेक्ष, स‌त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़‌
ॐ छ‌ल‌-छंद‌, ॐ मिथ्या, ॐ होड़‌म‌होड़
ॐ ब‌क‌वास‌, ॐ उद‌घाट‌न‌
ॐ मारण मोह‌न उच्चाट‌न‌

बाबा नागार्जुन

Wednesday, September 18, 2013

मेरी भाषा के लोग

मेरी भाषा के लोग
मेरी सड़क के लोग हैं
सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग
पिछली रात मैंने एक सपना देखा
कि दुनिया के सारे लोग
एक बस में बैठे हैं
और हिंदी बोल रहे हैं
फिर वह पीली-सी बस
हवा में गायब हो गई
और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिंदी
जो अंतिम सिक्के की तरह
हमेशा बच जाती है मेरे पास

हर मुश्किल में
कहती वह कुछ नहीं
पर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभ
कि उसकी खाल पर चोटों के
कितने निशान हैं
कि आती नहीं नींद उसकी कई संज्ञाओं को
दुखते हैं अक्सर कई विशेषण

पर इन सबके बीच
असंख्य होठों पर
एक छोटी-सी खुशी से थरथराती रहती है यह !
तुम झांक आओ सारे सरकारी कार्यालय
पूछ लो मेज से
दीवारों से पूछ लो
छान डालो फ़ाइलों के ऊंचे-ऊंचे
मनहूस पहाड़
कहीं मिलेगा ही नहीं
इसका एक भी अक्षर
और यह नहीं जानती इसके लिए
अगर ईश्वर को नहीं
तो फिर किसे धन्यवाद दे !

मेरा अनुरोध है —
भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध —
कि राज नहीं -भाषा
भाषा-भाषा-सिर्फ़ भाषा रहने दो
मेरी भाषा को ।

इसमें भरा है
पास-पड़ोस और दूर-दराज़ की
इतनी आवाजों का बूंद-बूंद अर्क
कि मैं जब भी इसे बोलता हूं
तो कहीं गहरे
अरबी   तुर्की   बांग्ला   तेलुगु
यहां तक कि एक पत्ती के
हिलने की आवाज भी
सब बोलता हूं जरा-जरा
जब बोलता हूं हिंदी


पर जब भी बोलता हूं
यह लगता है —
पूरे व्याकरण में
एक कारक की बेचैनी हूं
एक तद्भव का दुख

तत्सम के पड़ोस में ।

-केदारनाथ सिंह

Tuesday, September 17, 2013

देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता

यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो ?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो ?
यदि हां
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है ।

देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें ।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है ।

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव

कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।

जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है ।

याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन ।

ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है ।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो -
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।

आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार ,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार ।

- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

वीरांगना

मैंने उसको 
जब-जब देखा 
लोहा देखा 
लोहे जैसा- 
तपते देखा- 
गलते देखा- 
ढलते देखा 
मैंने उसको 
गोली जैसा 
चलते देखा। 

Saturday, August 10, 2013

विदाई -देम्याँ बेदनी (रूसी कवि)

(यह एक रूसी कविता का भावानुवाद है जो "Soviet Russian Literature" पुस्तक से लिया गया है. अंग्रजी में इस कविता का नाम है -The Seeing-off)

जब मेरी माँ ने तड़पकर
विदा किया मुझे स्टेशन पर,
मेरे सगे रोक न पाए.
मेघ से घुमड़ते दिल के जज्बात को
आँसुओं की धार को.

"ओह, मेरे लाल, तू दिल से दूर न जा,
किस ओर जा रहा तू?
सेना में, यह तो बहुत बुरा है
रुक जा, रुक जा, रुक जा!

कितने बच्चे यहाँ रुके हुए हैं,
तू क्यों जाने को उद्धत है?
बोल्शेविक तेरे बिना
कर सकते है अच्छा काम.

अब बात हमारी मान, जल्दी कर
फेंक अपना भर्ती पत्र.
कैसे बन गया तू इतना
घृणित आशावादी!

देख, तेरी माँ संतप्त तेरे बिन 
पागल हो रही,
बहुत करना है काम रुक जा,
मत बन तू इतना निष्ठुर.

देख, सफलता का सूरज उग रहा है
खुशहाली की फसल लहलहा रही है
ज़मीन हमारी सोना उगलेगी
जो अत्याचारियों से छीनी है हमने.

और जिंदगी मदमस्त हो रही है,
झूम रही है  
अच्छा होगा, यहीं रुककर
खोजो अपने लिए एक दुल्हन सुंदर.

जिंदगी के मज़े लो
बाल-बच्चों संग
इतना सुनकर मैं
विनम्र हो झुका माँ के आगे.

मैं बुजुर्गों के आगे भी झुका
बूढ़ी महिलाओं को नमन किया
"ओ मेरे प्यारे हितचिंतकों
बहती बयार को कौन रोक सका है?

जो पुत्र स्नेह में बावले हो गये आप
ऐसी नाज़ुक बेला में
अत्याचारी जार फिर एक बार
खींचेगा अपनी खूनी तलवार.

दरिन्दा फिर वापस आ जाएगा
फैला लेगा अपना साम्राज्य
हम पछ्ताते रह जाएँगे
और खो देंगे अपनी ज़मीन और आज़ादी.

हिंस विषधर ज़मीदार
फुँकारेंगे फिर एक बार
उनके सैनिक ज़ुल्म ढाएँगे हमपर
और गुलामी का जुआँ लाद देंगे फिर
पहले से भारी.

आप लोग देख नहीं पा रहे हैं
आततायी जार को हराकर
हम खुशहाली लाएँगे
मैं छोड़े जा रहा हूँ अपनी माँ
उन्हें संभालना.

लाल सेना का शानदार अभियान
अनंत कष्ट उठाकर
मैं भी लड़ने जाउँगा
उन जिंदादिल लोगों के साथ.

अब वक्त नहीं गँवा सकता मैं
केवल वार्तालाप में
जल्दी उतार दूँगा अपना चाकू
जुल्मी सरमायादारी के सीने में

समर्पण नहीं संघर्ष है अपना नारा
मिलूँगा आपके पीटर महान से
पुरस्कार में
स्वर्ग बहुत मीठा होगा.

अलौकिक अचेत स्वर्ग नहीं
न ही उन ज़मींदारों का स्वर्ग
बल्कि जाउँगा अपनी महान पवित्र भूमि

सोवियत भूमि.

-देम्याँ बेदनी 

Wednesday, May 15, 2013

काश ऐसा हो सहमी आंखों में


काश ये बेटियां बिगड़ जाएं
इतना बिगड़ें के ये बिफर जाएं
उन पे बिफरें जो तीर-ओ-तेशा लिए
राह में बुन रहे हैं दार ओ रसन
और हर आजमाइश – ए -दार -ओ – रसन
इनको रस्ते की धूल लगने लगे 

काश ऐसा हो अपने चेहरे से 
अंचलों को झटक के सबसे कहें 
ज़ुल्म की हद जो तुमने खेंची थी 
उसको पीछे कभी का छोड़ चुके 

काश चेहरे से खौफ का ये हिजाब
यक-ब-यक इस तरह पिघल जाएं
तमतमा उठे ये रुख ए रोशन
दिल का हर तार टूटने सा लगे

काश ऐसा हो सहमी आंखों में
कहर की बिजलियां कड़क उठें
और मांगे ये सारी दुनिया से
एक-एक करके हर गुनाह का हिसाब
वोह गुनाह जो कभी किये ही नहीं
और उनका भी जो जरूरी हैं

काश ऐसा हो मेरे दिल की कसक
इनके नाजुक लबों से फूट पड़े

- गौहर रज़ा

Sunday, April 7, 2013

कचोटती स्वतन्त्रता


तुम बेचते हो अपनी आँखों का शऊर, अपने हांथों की दृष्टि 
तुम बनाते हो लोइयाँ दुनियाभर की चीजों की 
    बिना एक कौर चखे 
अपनी महान आजादी के साथ तुम खटते हो गैरों के साथ 
जो तुम्हारी अम्मा को कलपाते हैं, उन्हें 
    धन्ना सेठ बनाने की आजादी के साथ 
    तुम स्वतन्त्र हो।

धरती पर गिरने के छिन ही वे सवार हो जाते हैं तुम्हारे सर पर 
उनकी झूठ चक्कियां पीसती हैं लगातार तुम्हारी जिंदगी 
हथेलियों से कनपटियाँ दाबे, महान आजादी से बिसूरते हो तुम 
    अंत:करन की स्वतंत्रता के साथ 
    तुम स्वतन्त्र हो।

तुम्हारा झूलता सर अलग जान पड़ता है गर्दन से 
लटकती हैं बाहें आजू-बाजू 
मटरगश्ती करते हो तुम अपनी महान आजादी में 
    बेरोजगारों की स्वतंत्रता के साथ 
    तुम स्वतन्त्र हो।

तुम प्यार करते हो देश को जिगरी दोस्त के सामान 
किसी रोज, वे, उसे बेच देते हैं, शायद अमरीका को 
साथ में तुम्हे भी, तुम्हारी महान आजादी समेत 
    हवाई अड्डा बनाने की स्वतंत्रता के साथ 
    तुम स्वतन्त्र हो।

वाल स्ट्रीट तुम्हारी गर्दन जकड़ती है,
सत्यानाश हो उसके हाथों का 
किसी दिन वे तुम्हें भेज देते हैं कोरिया 
अपनी महान आजादी से तुम भरते हो कब्र
    गुमनाम सैनिक हो जाने की स्वतंत्रता के साथ 
    तुम स्वतन्त्र हो।

लोहे का फाटक नहीं, परदा नहीं फरदे का,
टाट तक की ओट नहीं 
जरूरत ही क्या है तुम्हे स्वतंत्रता वरन करने की 
    तुम स्वतन्त्र हो।
नीली छतरी के नीचे कचोटने वाली है यह स्वतंत्रता








-नाजिम हिकमत 

उड़ते हुए बाजों के पीछे

उड़ गए है बाज़ चोचों में लेकर 
हमारी चैन से एक पल बिता सकने की ख़वाहिश 
दोस्तों , अब चला जाये 
उड़ते हुए बाजों के पीछे ...

यहाँ तो पता नही कब धमकें
लाल पगड़ियों वाले आलोचक 
और शुरू कर दें 
कविता की दाद देनी 
इससे पहले 
की फ़ैल जाये थाने की रोज़ फैलती इमारत
तुम्हारे गाँव , तुम्हारे परिवार तक 
और सलग्न हो जाए  
आत्मसम्मान का कांपता हुआ पृष्ठ 
उस छुरी मुखवाले मुंशी के रोजनामचे में-
दोस्तों , अब चला जाये 
उड़ते हुए बाजों के पीछे ...

यह तो सारी उम्र ना उतरेगा 
बहनों के ब्याहों पर उठाया क़र्ज़ 
खेतों में छिडकें खून का 
हर कतरा भी इकठ्ठा कर 
इतना रंग बनेगा 
कि चित्रित कर लेंगे, एक शांत 
मुस्कुराते हुए इंसान का चेहरा 
और फिर 
जिंदगी की पूरी राते भी गिनते चलें 
सितारों की गिनती हो पाएगी 
क्योंकि हो नहीं सकेगा यह सब 
फिर दोस्तों , अब चला जाये 
उड़ते हुए बाजों के पीछे ...

यदि आपने महसूस की हो 
गंड में जम रहे गर्म गुड़ की महक 
और देखा हो 
जोती हुई गीली ज़मीन का 
चाँद की चांदनी में चमकना 
तो आप सब जरुर कुछ इंतजाम करो 
लपलपाते हुए मतपत्र का 
जो लार टपका रहा है 
हमारे कुओं की हरयाली पर 
जिन्होंने देखे हैं 
छतों पर सूखते सुनहरे भुट्टे 
और नहीं देखे 
मंडियों में सूखते दाम 
वे कभी समझ पायेंगे 
कि कैसे दुश्मनी है 
दिल्ली की उस हुक्मरान औरत की 
नंगे पावों वाली गाँव की उस सुंदर लड़की से 
सुरंग- जैसी जिंदगी में चलते हुए 
जब लौट आती है 
अपनी आवाज़ खुद के ही पास 
और आँखों में चुभते रहते 
बूढ़े बैल के उचड़े कानों- जैसे सपने 
जब चिमट जाये गलियों का कीचड़ 
उम्र के सबसे हसीन सालों से 
तो करने को बस यही बचता है 

की चला जाये 
उड़ते हुए बाजों के पीछे...

-अवतार सिंह 'पाश'


Monday, February 18, 2013

'संतोष करो, संतोष करो ।'


खाने की टेबल पर जिनके
पकवानों की रेलमपेल
वे पाठ पढ़ाते हैं हमको
'संतोष करो, संतोष करो ।'

उनके धंधों की ख़ातिर
हम पेट काट कर टैक्स भरें
और नसीहत सुनते जाएँ
'त्याग करो, भई, त्याग करो ।'

मोटी-मोटी तोन्दों को जो
ठूँस-ठूँस कर भरे हुए
हम भूखों को सीख सिखाते
'सपने देखो, धीर धरो ।'

बेड़ा ग़र्क देश का करके
हमको शिक्षा देते हैं
'तेरे बस की बात नहीं
हम राज करें, तुम राम भजो ।'

-बेर्टोल्ट ब्रेख्ट

नई पीढ़ी के प्रति मरणासन्न कवि का संबोधन


आगामी पीढ़ी के युवाओं
और उन शहरों की नयी सुबहों को
जिन्हें अभी बसना है
और तुम भी ओ अजन्मों
सुनो मेरी आवाज सुनो
उस आदमी की आवाज
जो मर रहा है
पर कोई शानदार मौत नहीं

वह मर रहा है
उस किसान की तरह
जिसने अपनी जमीन की 
देखभाल नहीं की
उस आलसी बढ़ई की तरह
जो छोड़ कर चला जाता है
अपनी लकड़ियों को
ज्यों का त्यों

इस तरह
मैंने अपना समय बरबाद किया
दिन जाया किया
और अब मैं तुमसे कहता हूं
वह सबकुछ कहो जो कहा नहीं गया
वह सबकुछ करो जो किया नहीं गया
और जल्दी

और मैं चाहता हूं 
कि तुम मुझे भूल जाओ
ताकि मेरी मिसाल तुम्हें पथभ्रष्ट नहीं कर दे
आखिर क्यों
वो उन लोगों के साथ बैठा रहा
जिन्होंने कुछ नहीं किया
और उनके साथ वह भोजन किया
जो उन्होंने खुद नहीं पकाया था
और उनकी फालतू चर्चाओं में 
अपनी मेधा क्यों नष्ट की
जबकि बाहर
पाठशालाओं से वंचित लोग
ज्ञान की पिपासा में भटक रहे थे

हाय
मेरे गीत वहां क्यों नहीं जन्में
जहां से शहरों को ताकत मिलती है
जहां वे जहाज बनाते हैं
वे क्यों नहीं उठे
उस धुंए की तरह
तेज भागते इंजनों से
जो पीछे आसमान में रह जाता है

उन लोगों के लिए
जो रचनाशील और उपयोगी हैं
मेरी बातें
राख की तरह
और शराबी की बड़बड़ाहट की तरह
बेकार होती है

मैं एक ऐसा शब्द भी
तुम्हें नहीं कह सकता
जो तुम्हारे काम न आ सके 
ओ भविष्य की पीढ़ियों
अपनी अनिश्चयग्रस्त उंगलियों से
मैं किसी ओर संकेत भी नहीं कर सकता
क्योंकि कोई कैसे दिखा सकता किसी को रास्ता
जो खुद ही नहीं चला हो
उस पर

इसलिए
मैं सिर्फ यही कर सकता हूं
मैं, जिसने अपनी जिंदगी बरबाद कर ली
कि तुम्हें बता दूं
कि हमारे सड़े हुए मुंह से
जो भी बात निकले
उस पर विश्वास मत करना
उस पर मत चलना
हम जो इस हद तक असफल हुए हैं
उनकी कोई सलाह नहीं मानना
खुद ही तय करना
तुम्हारे लिए क्या अच्छा है
और तुम्हें किससे सहायता मिलेगी
उस जमीन को जोतने के लिए
जिसे हमने बंजर होने दिया
और उन शहरों को बनाने के लिए
लोगों के रहने योग्य
जिसमें हमने जहर भर दिया

-बेर्टोल्ट ब्रेख्ट