Monday, February 18, 2013

'संतोष करो, संतोष करो ।'


खाने की टेबल पर जिनके
पकवानों की रेलमपेल
वे पाठ पढ़ाते हैं हमको
'संतोष करो, संतोष करो ।'

उनके धंधों की ख़ातिर
हम पेट काट कर टैक्स भरें
और नसीहत सुनते जाएँ
'त्याग करो, भई, त्याग करो ।'

मोटी-मोटी तोन्दों को जो
ठूँस-ठूँस कर भरे हुए
हम भूखों को सीख सिखाते
'सपने देखो, धीर धरो ।'

बेड़ा ग़र्क देश का करके
हमको शिक्षा देते हैं
'तेरे बस की बात नहीं
हम राज करें, तुम राम भजो ।'

-बेर्टोल्ट ब्रेख्ट

नई पीढ़ी के प्रति मरणासन्न कवि का संबोधन


आगामी पीढ़ी के युवाओं
और उन शहरों की नयी सुबहों को
जिन्हें अभी बसना है
और तुम भी ओ अजन्मों
सुनो मेरी आवाज सुनो
उस आदमी की आवाज
जो मर रहा है
पर कोई शानदार मौत नहीं

वह मर रहा है
उस किसान की तरह
जिसने अपनी जमीन की 
देखभाल नहीं की
उस आलसी बढ़ई की तरह
जो छोड़ कर चला जाता है
अपनी लकड़ियों को
ज्यों का त्यों

इस तरह
मैंने अपना समय बरबाद किया
दिन जाया किया
और अब मैं तुमसे कहता हूं
वह सबकुछ कहो जो कहा नहीं गया
वह सबकुछ करो जो किया नहीं गया
और जल्दी

और मैं चाहता हूं 
कि तुम मुझे भूल जाओ
ताकि मेरी मिसाल तुम्हें पथभ्रष्ट नहीं कर दे
आखिर क्यों
वो उन लोगों के साथ बैठा रहा
जिन्होंने कुछ नहीं किया
और उनके साथ वह भोजन किया
जो उन्होंने खुद नहीं पकाया था
और उनकी फालतू चर्चाओं में 
अपनी मेधा क्यों नष्ट की
जबकि बाहर
पाठशालाओं से वंचित लोग
ज्ञान की पिपासा में भटक रहे थे

हाय
मेरे गीत वहां क्यों नहीं जन्में
जहां से शहरों को ताकत मिलती है
जहां वे जहाज बनाते हैं
वे क्यों नहीं उठे
उस धुंए की तरह
तेज भागते इंजनों से
जो पीछे आसमान में रह जाता है

उन लोगों के लिए
जो रचनाशील और उपयोगी हैं
मेरी बातें
राख की तरह
और शराबी की बड़बड़ाहट की तरह
बेकार होती है

मैं एक ऐसा शब्द भी
तुम्हें नहीं कह सकता
जो तुम्हारे काम न आ सके 
ओ भविष्य की पीढ़ियों
अपनी अनिश्चयग्रस्त उंगलियों से
मैं किसी ओर संकेत भी नहीं कर सकता
क्योंकि कोई कैसे दिखा सकता किसी को रास्ता
जो खुद ही नहीं चला हो
उस पर

इसलिए
मैं सिर्फ यही कर सकता हूं
मैं, जिसने अपनी जिंदगी बरबाद कर ली
कि तुम्हें बता दूं
कि हमारे सड़े हुए मुंह से
जो भी बात निकले
उस पर विश्वास मत करना
उस पर मत चलना
हम जो इस हद तक असफल हुए हैं
उनकी कोई सलाह नहीं मानना
खुद ही तय करना
तुम्हारे लिए क्या अच्छा है
और तुम्हें किससे सहायता मिलेगी
उस जमीन को जोतने के लिए
जिसे हमने बंजर होने दिया
और उन शहरों को बनाने के लिए
लोगों के रहने योग्य
जिसमें हमने जहर भर दिया

-बेर्टोल्ट ब्रेख्ट

आनेवाली पीढ़ियों से


(1)
सचमुच, मैं एक अँधेरे वक़्त में जीता हूँ !

सीधा शब्द निर्बोध हैं। बिना शिकन पडा माथा
लापरवाही का निशान। हँसने वाले को
ख़ौफ़नाक ख़बर
अभी तक बस मिली नहीं है।

कैसा है ये वक़्त, कि
पेड़ों की बातें करना लगभग ज़ुर्म है
क्योंकि उसमें कितनी ही दरिंदगियों पर ख़ामोशी शामिल है !
बेफ़िक्र सड़क के उस पार जानेवाला
अपने दोस्तों की पहुँच से बाहर तो नहीं चला गया
जो मुसीबतज़दा हैं?

यह सच है : कमा लेता हूँ अपनी रोटी अभी तक
पर यकीन मानो : यह सिर्फ़ संयोग है। चाहे
कुछ भी करूँ, मेरा हक़ नहीं बनता कि छक कर पेट भरूँ।
संयोग से बच गया हूँ। (किस्मत बिगड़े,
तो कहीं का न रहूँ)

मुझसे कहा जाता है : तुम खाओ-पीओ ! ख़ुश रहो कि
ये तुम्हें नसीब हैं।
पर मैं कैसे खाऊँ, कैसे पीऊँ, जबकि
अपना हर कौर किसी भूखे से छीनता हूँ, और
मेरे पानी के गिलास के लिए कोई प्यासा तड़प रहा हो ?
फिर भी मैं खाता हूँ और पीता हूँ।

चाव से मैं ज्ञानी बना होता
पुरानी पोथियों में लिखा है, ज्ञानी क्या होता है :
दुनिया के झगड़े से अलग रहना और अपना थोड़ा सा वक़्त
बिना डर के गुजार लेना
हिंसा के बिना भी निभा लेना
बुराई का जवाब भलाई से देना
अपने अरमान पूरा न करना, बल्कि उन्हें भूल जाना
ये समझे जाते ज्ञानी के तौर-तरीके।
यह सब मुझसे नहीं होता :
सचमुच, मैं एक अँधेरे वक़्त में जीता हूँ!

(2)
शहरों में मैं आया अराजकता के दौर में
जब वहाँ भूख का राज था।
इंसानों के बीच मैं आया बगावत के दौर में
और उनके गुस्से में शरीक हुआ।
ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था।

जंगों के बीच मुझे रोटी नसीब हुई
क़ातिलों के बीच मुझे डालने पड़े बिस्तर
प्यार के साथ पेश आया मैं लापरवाही से
और क़ुदरत को देखा तो बिना सब्र के।
ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था।

मेरे वक़्त में 'सड़कें' दलदल तक जाती थीं
जुबान ने मेरा भेद खोला जल्लादों के सामने
शायद ही कुछ कर पाया मैं। पर हुक्मरानों को
राहत मिलती है मेरे बिना, ये उम्मीद तो थी।
ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था।

ताक़त नाकाफ़ी थी। मंज़िल
दूर कहीं दूर थी।
साफ़-साफ़ दिखती थी, हालाँकि शायद ही
मेरी पहुँच के अंदर थी। ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था।

(3)
तुम, कभी तुम जब उस ज्वार से उबरोगे
जिसमें हम डूब गए
याद करना
जब तुम हमारी कमज़ोरियों की बात करो
उस अँधेरे वक़्त की भी
जिससे हम बचे रहे।

हमें तो गुज़रना पडा, जूतों की तुलना में कहीं ज़्यादा
मुल्क बदलते हुए
वर्गों के बीच युद्धों से होकर, लाचार
जब वहां सिर्फ़ अन्याय हुआ करता था, पर गुस्सा नहीं।
हालाँकि हमें पता तो है :
कमीनेपन से नफ़रत से भी
चेहरा तन जाता है।
नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ गुस्से से भी
आवाज़ भर्रा सी जाती है। हाय रे हम
हम, जो ज़मीन तैयार करना चाहते थे बंधुत्व के लिए
बंधु तो हम नहीं बन सके।

पर तुम, जब वो वक़्त आए
कि इंसान इंसान का मददगार हो
याद करना हमें
कुछ समझदारी के साथ।

-बेर्टोल्ट ब्रेख्ट

जब फ़ासिस्ट मज़बूत हो रहे थे


जर्मनी में
जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे
और यहां तक कि 
मजदूर भी
बड़ी तादाद में
उनके साथ जा रहे थे
हमने सोचा
हमारे संघर्ष का तरीका गलत था
और हमारी पूरी बर्लिन में
लाल बर्लिन में
नाजी इतराते फिरते थे
चार-पांच की टुकड़ी में 
हमारे साथियों की हत्या करते हुए
पर मृतकों में उनके लोग भी थे
और हमारे भी
इसलिए हमने कहा
पार्टी में साथियों से कहा
वे हमारे लोगों की जब हत्या कर रहे हैं
क्या हम इंतजार करते रहेंगे
हमारे साथ मिल कर संघर्ष करो
इस फासिस्ट विरोधी मोरचे में
हमें यही जवाब मिला
हम तो आपके साथ मिल कर लड़ते
पर हमारे नेता कहते हैं
इनके आतंक का जवाब लाल आतंक नहीं है
हर दिन
हमने कहा
हमारे अखबार हमें सावधान करते हैं
आतंकवाद की व्यक्तिगत कार्रवाइयों से
पर साथ-साथ यह भी कहते हैं
मोरचा बना कर ही
हम जीत सकते हैं
कामरेड, अपने दिमाग में यह बैठा लो
यह छोटा दुश्मन
जिसे साल दर साल
काम में लाया गया है
संघर्ष से तुम्हें बिलकुल अलग कर देने में
जल्दी ही उदरस्थ कर लेगा नाजियों को
फैक्टरियों और खैरातों की लाइन में
हमने देखा है मजदूरों को
जो लड़ने के लिए तैयार हैं
बर्लिन के पूर्वी जिले में
सोशल डेमोक्रेट जो अपने को लाल मोरचा कहते हैं
जो फासिस्ट विरोधी आंदोलन का बैज लगाते हैं
लड़ने के लिए तैयार रहते हैं
और शराबखाने की रातें बदले में मुंजार रहती हैं
और तब कोई नाजी गलियों में चलने की हिम्मत नहीं कर सकता
क्योंकि गलियां हमारी हैं
भले ही घर उनके हों

-बेर्टोल्ट ब्रेख्ट

निर्णय के बारे में


तुम जो कलाकार हो
और प्रशंसा या निन्दा के लिए
हाज़िर होते हो दर्शकों के निर्णय के लिए
भविष्य में हाज़िर करो वह दुनिया भी
दर्शकों के निर्णय के लिए
जिसे तुमने अपनी कृतियों में चित्रित किया है

जो कुछ है वह तो तुम्हें दिखाना ही चाहिए
लेकिन यह दिखाते हुए तुम्हें यह भी संकेत देना चाहिए
कि क्या हो सकता था और नहीं है
इस तरह तुम मददगार साबित हो सकते हो
क्योंकि तुम्हारे चित्रण से
दर्शकों को सीखना चाहिए
कि जो कुछ चित्रित किया गया है
उससे वे कैसा रिश्ता कायम करें

यह शिक्षा मनोरंजक होनी चाहिए
शिक्षा कला की तरह दी जानी चाहिए
और तुम्हें कला की तरह सिखाना चाहिए
कि चीज़ों और लोगों के साथ
कैसे रिश्ता कायम किया जाय
कला भी मनोरंजक होनी चाहिए

वाक़ई तुम अँधेरे युग में रह रहे हो।
तुम देखते हो बुरी ताक़तें आदमी को
गेंद की तरह इधर से उधर फेंकती हैं
सिर्फ़ मूर्ख चिन्ता किये बिना जी सकते हैं
और जिन्हें ख़तरे का कोई अन्देशा नहीं है
उनका नष्ट होना पहले ही तय हो चुका है

प्रागैतिहास के धुँधलके में जो भूकम्प आये
उनकी क्या वक़अत है उन तकलीफ़ों के सामने
जो हम शहरों में भुगतते हैं ? क्या वक़अत है
बुरी फ़सलों की उस अभाव के सामने
जो नष्ट करता है हमें
विपुलता के बीच

-बेर्टोल्ट ब्रेख्ट

आलोचनात्मक रवैये पर


बहुत-से लोगों को
आलोचनात्मक रवैया कारगर नहीं लगता
ऐसा इसलिए कि वे पाते हैं
सत्ता पर उनकी आलोचना का कोई असर नहीं पड़ता।

लेकिन इस मामले में जो रवैया कारगर नहीं है
वह दरअसल कमज़ोर रवैया है।

आलोचना को हासिल कराये जायँ
अगर हाथ और हथियार
तो राज्य नष्ट किये जा सकते हैं उससे

नदी को बाँधना
फल के पेड़ की छँटाई करना
आदमी को सिखाना
राज्य को बदलना
ये सब हैं कारगर आलोचना के नमूने
साथ ही कला के भी।

-बेर्टोल्ट ब्रेख्ट

जनता की रोटी


इन्साफ़ जनता की रोटी है ।
कभी बहुत ज़्यादा, कभी बहुत कम ।
कभी ज़ायकेदार, कभी बदज़ायका ।
जब रोटी कम है; तब हर तरफ़ भूख है ।
जब रोटी बदज़ायका है; तब ग़ुस्सा ।

उतार फेंको ख़राब इन्साफ़ को—
बिना लगाव के पकाया गया,
बिना अनुभव के गूँधा गया !
बिना बास-मिठास वाला
भूरा-पपड़ियाया इन्साफ़
बहुत देर से मिला बासी इन्साफ़ ।

अगर रोटी ज़ायकेदार और भरपेट है
तो खाने की बाक़ी चीज़ों के लिए
        माफ़ किया जा सकता है
हरेक चीज़ यक्-बारगी तो बहुतायत में
नहीं हासिल की जा सकती है न !
इन्साफ़ की रोटी पर पला-पुसा
काम अंजाम दिया जा सकता है
जिससे कि चीज़ों की बहुतायत मुमकिन होती है ।

जैसे रोज़ की रोटी ज़रूरी है
वैसे ही रोज़ का इंसाफ़ ।
बल्कि उसकी ज़रूरत तो
        दिन में बार-बार पड़ती है ।

सुबह से रात तक काम करते हुए,
आदमी अपने को रमाए रखता है—
काम में लगे रहा एक क़िस्म का रमना ही है ।
कसाले के दिनों में और ख़ुशी के दिनों में
लोगों को इन्साफ़ की भरपेट और पौष्टिक
        दैनिक रोटी की ज़रूरत होती है ।

चूँकि रोटी इन्साफ़ की है, लिहाज़ा दोस्तो,
यह बात बहुत अहमियत रखती है
कि उसे पकाएगा कौन ?

दूसरी रोटी कौन पकाता है ?

दूसरी रोटी की तरह
इन्साफ़ की रोटी भी जनता के हाथों पकी होनी चाहिए ।

भरपेट, पौष्टिक और रोज़ाना ।

-बेर्टोल्ट ब्रेख्ट

ओ मेरे आदर्शवादी मन-"अंधेरे में" कविता का अंश

"ओ मेरे आदर्शवादी मन, 
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन, 
अब तक क्या किया? 
जीवन क्या जिया!! 

उदरम्भरि बन अनात्म बन गये, 
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये, 
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर, 

दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना, 
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना, 
असंग बुद्धि व अकेले में सहना, 
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर, 
अब तक क्या किया, 
जीवन क्या जिया!! 
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये, 
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये, 
बन गये पत्थर, 
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया, 
दिया बहुत-बहुत कम, 
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!! 
लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया, 
जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया, 
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया, 
भावना के कर्तव्य--त्याग दिये, 
हृदय के मन्तव्य--मार डाले! 
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया, 
तर्कों के हाथ उखाड़ दिये, 
जम गये, जाम हुए, फँस गये, 
अपने ही कीचड़ में धँस गये!! 
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में 
आदर्श खा गये! 

अब तक क्या किया, 
जीवन क्या जिया, 
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम 
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम..." 

-मुक्तिबोध

Sunday, February 17, 2013

विकास


ईख की पत्ती, कास, सरपत
जो भी काम भर को मिला
उसी से झोपड़ी बना कर रहे।

फिर भीत खडी की
और भीत के बचाव के लिये
मिट्टी तैयार की
और इसी मिट्टी से
ख़पड़े रच कर धूप में सुखाए
फिर अवाँ लगा कर
अच्छी तरह पका कर
घर को मजबोत छाजन दी।

मिट्टी ले लेने से खत्ता जो बन गया
उस में बरसाती जल भर गया-
जिसे लोग बावड़ी, तलैया और पोखरी
के नाम से जानते थे-
बावड़ी में मछलियाँ, कछवे, ढेर सारे जल जीव
आ बसे।
मछलियाँ बिकने लगीं।

-त्रिलोचन

दुनिया कैसे बचे


उर्वरकों के अंधाधुंध 
उपयोग से कृषि के लिए
हानिकर कीट तो नष्ट
ही हो गये
साथ ही दूसरे जीव भी
समाप्त हो गए
वनस्पतियों के सहारे जीने वाले
जीव जंतु भी जीव रहित हो गए
गीध आदि जो वायुमंडल को
स्वच्छ रखा करते थे
नष्ट होते होते नष्ट हो चले
इस दुर्घट योग से 
दुनियाँ कैसे बचे?

-त्रिलोचन

दीवारें दीवारें दीवारें दीवारें


दीवारें दीवारें दीवारें दीवारें
चारों ओर खड़ी हैं । तुम चुपचार खड़े हो
हाथ धरे छाती पर , मानो वहीं गड़े हो।

मुक्ति चाहते हो तो आओ धक्‍के मारें
और ढ़हा दें । उद्यम करते कभी न हारें
ऐसे वैसे आघातों से । स्‍तब्‍ध पड़े हो
किस दुविधा में।हिचक छोड़ दो। जरा कड़े हो।

आओ , अलगाने वाले अवरोध निवारें।
बहार सारा विश्‍व खुला है , वह अगवानी
करने को तैयार खड़ा है पर यह कारा
तुमको रोक रही है। क्‍या तुम रूक जाओगे।

नहीं करोगे ऊंची क्‍या गरदन अभिमानी।
बांधोगे गंगोत्री में गंगा की धारा।
क्‍या इन दीवारों के आगे झुक जाओगे।

-त्रिलोचन

अपनी पीढ़ी के लिए


वे सारे खीरे जिनमें तीतापन है हमारे लिए 
वे सब केले जो जुडवां हैं 
वे आम जो बाहर से पके पर भीतर खट्टे हैं चूक 
और तवे पर सिंकती पिछली रोटी परथन की 
सब हमारे लिए 
ईसा की बीसवीं शाताब्दी की अंतिम पीढी के लिए 
वे सारे युद्ध और तबाहियां 
मेला उखडने के बाद का कचडा महामारियां 
समुद्र में डूबता सबसे प्राचीन बंदरगाह 
और टूट कर गिरता सर्वोच्च शिखर 
सब हमारे लिए 
पोलिथिन थैलियों पर जीवित गौवों का दूध हमारे लिए 
शहद का छत्ता खाली 
हमारे लिए वो हवा फेफडे की अंतिम मस्तकहीन धड. 
पूर्वजों के सारे रोग हमारे रक्त में 
वे तारे भी हमारे लिए जिनका प्रकाश अब तक पहुंचा ही नहीं हमारे पास 
और वे तेरह सूर्य जो कहीं होंगे आज भी सुबह की प्रतीक्षा में 
सबसे सुंदर स्त्रियां और सबसे सुंदर पुरूष 
और वो फूल जिसे मना है बदलना फल में 
हमारी ही थाली में शासकों के दांत छूटे हुए 
और जरा सी धूप में ध्धक उठती आदिम हिंसा 

जब भी हमारा जिक्र हो कहा जाए 
हम उस समय जिए जब 
सबसे आसान था चंद्रमा पर घर 
और सबसे मोहाल थी रोटी 
और कहा जाए 
हर पीढी की तरह हमें भी लगा 
कि हमारे पहले अच्छा था सब कुछ 
और आगे सब अच्छा होगा।

-अरुण कमल

सूचकांक


पहले एक क़िताब की दुकान पर काम पकड़ा
हफ़्ते-भर रहा फिर बैठ गया
बोला, मन नहीं लगा;

जब रात भर पेट गुड़गुड़ाया तो फिर एक प्रेस में लग गया
और कोई दस दिन बाद मुझे मंदिर की सीढ़ियों पर मिला
मालिक जल्लाद था, बोला;
तब विद्यार्थियों के लिए टिफ़िन ढोने लगा बाँस के डंडे पर
और चौथे ही दिन अण्डा चुराने के इल्जाम में वापस
सड़क पर;

फिर एक कूरियर सर्विस में घुस गया
और भूत की तरह बारह दिन सायकिल रौंदने और
सैंकड़ों घंटियाँ बजाने के बाद
उसे अचानक लगा कि वह सिर्फ़ ख़ुराकी पर खट रहा है
तो एक दिन मय चिट्ठियों के चम्पत हो गया;

फिर तो कई काम किये, छोड़े, किये छोड़े
मारा-मारा फिरा एक दो बार घायल भी हुआ पता नहीं कैसे,
एक दिन अस्पताल में मिल गया पड़ा-पड़ा
खिड़की से पुकारा
पर प्यारे ने हिम्मत नहीं हारी
हाथ-पाँव मारता रहा

आख़िर एक दिन दारु-भट्टी में जुगाड़ लगा
और वहाँ टिक गया
शरीर भी अब गोटा गया
फट से दो-दो कमीज़ें खरीदीं, एक सफ़ेद एक धारी वाली
एक काला चश्मा
और एक कैप जिसे कालेजिया लड़कों की तरह उल्टा पहनता
और एक दिन लड़की भी देख ली रिश्ते में

तभी एक दिन देखा मैंने
पटने के अशोक राजपथ पर
अगल-बगल सिपाही
कमर में रस्सा!

-अरुण कमल

Monday, February 4, 2013

चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़


चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर हैं हम
इक ज़रा और सितम सह लें तड़प लें रो लें
अपने अज्दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम

जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरे है
फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं
और अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफ़्लिस की क़बा है
जिस में हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं

लेकिन अब ज़ुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के थोड़े हैं

अर्सा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में
हम को रहना है पर यूँ ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बेनाम गराँ-बार सितम
आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है

ये तेरी हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार

चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़

-फैज अहमद 'फैज

Friday, February 1, 2013

दियासलाई की तीली



मैं दियासलाई की एक छोटी तीली
अति नगण्य, सबकी नज़र से ओझल
फ़िर भी बारूद कसमसाता है मुँह के भीतर
सीने में जल उठने को बेचैन एक साँस

मैं दियासलाई की एक छोटी तीली ।

कैसी उथल-पुथल मच गई उस दिन
जब घर के एक कोने में जल उठी आग
बस, इसलिए कि नाफ़रमानी के साथ
बिन बुझाए फेंक दिया था मुझे
कितने घर जला कर किए ख़ाक 
कितने प्रासाद धूल में मिला दिए
मैंने अकेले ही - मैं दियासलाई की एक छोटी तीली ।

कितने शहर कितनी रियासतें
कर सकती हूँ मैं सुपुर्दे ख़ाक
क्या अब भी करोगे नाफ़रमानी
क्या तुम भूल गए उस दिन की बात
जब जल उठे थे हम एक साथ एक बक्से में
और चकित तुम - हमने सुना उस दिन
तुम्हारे विवर्ण मुख से एक आर्त्तनाद ।

हमारी बेइन्तहा ताक़त का एहसास
बार-बार करने के बावजूद
तुम समझते क्यों नहीं
कि हम क़ैद नहीं रहेंगे तुम्हारी जेबों में
हम निकल पड़ेंगे , हम फ़ैल जाएँगे
शहरों कस्बों गाँवों - दिशाओं से दिशाओं तक ।

हम बार-बार जले नितान्त उपेक्षित
जैसा कि जानते ही हो तुम
तुम्हें बस यही नहीं मालूम
कि कब जल उठेंगे हम
आख़िरी बार के लिए । 

-सुकान्त भट्टाचार्य
(मूल बंगला से अनुवाद : नील कमल)