Friday, November 8, 2024

कवि तुम किनके? कविता किसकी? -- शंकर शैलेंद्र

जिनके सीने में सुइयों-सा गड़ता है दर्द विवशता का, 

जिनके घर में घुस बैठा है अंधा राक्षस परवशता का, 

जो दुनिया भर का बोझ उठाए रंजोग़म से लड़ते हैं, 

जो अपनी राहें आप बना पर्वत की चोटी चढ़ते हैं, 

कवि उनका है, 

कविता उनकी! 

जिनकी दो ख़ाली जेबें जब दुकान-हाट पर जाती हैं, 

तो मोल माल का देख दूर से आहें भर रह जाती हैं, 

पर जिनके कड़ियल सीने में है राजों के राजों-सा दिल, 

इस आसमान के नीचे ही जुड़ जाती हैं जिनकी महफ़िल... 

कवि उनका है, 

कविता उनकी! 

जिनके सपनों की प्रीत परी बिक जाती है बाज़ारों में, 

जिनके अरमानों की कलियाँ सो जाती हैं अंगारों में, 

फिर भी जो दिल के घाव छुपा हँसते हैं ज़िंदा रहते हैं... 

तूफ़ाँ से काँधे क़दम मिला जो संग समय के बहते हैं... 

कवि उनका है, 

कविता उनकी।


Tuesday, November 5, 2024

मुसलमान --हूबनाथ पांडेय

 


मैं अब विदा लेता हूँ --अवतार सिंह 'पाश'

 


अब विदा लेता हूँ
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूँ
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का ज़िक्र होना था
ईख की सरसराहट का ज़िक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का ज़िक्र होना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सब कुछ का ज़िक्र होना था

उस कविता में मेरे हाथों की सख़्ती को मुस्कुराना था
मेरी जाँघों की मछलियों को तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और ज़िन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक़्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगुनों से भरी वह कविता
तो वह वैसे ही दम तोड़ देती
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाख़ून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के ख़िलाफ़ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है

युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुम्बन के लिए बढ़े होंठों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र की साँस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आँगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख़्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूँ

मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गाँव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हाँ, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है
मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूँ
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तम्बू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जो हमारे मिलने से हसीन हो गई

मैं शुक्रिया करता हूँ
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इन्तज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेहूँ की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूँ, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग-केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूँ, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूँ
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास आभार है
मैं शुक्रिया करना चाहता हूँ
प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि ज़ुल्म को झेलते हुए ख़ुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफ़ा में पड़े रहकर
ज़ख़्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना

जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूँज जाना -
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें ज़िन्दगी ने बनिया बना दिया
जिस्म का रिश्ता समझ सकना,
ख़ुशी और नफ़रत में कभी भी लकीर न खींचना,
ज़िन्दगी के फैले हुए आकार पर फ़िदा होना,
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना,
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूँ

तू भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया
कि मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक़्शों की धार बाँधने में
कि मेरे चुम्बनों ने
कितना ख़ूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा कि मेरे आलिंगनों ने
तेरा मोम जैसा बदन कैसे साँचे में ढाला
तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त
सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी
कि मैं गले तक ज़िन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे भी हिस्से का जी लेना
मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना ।

ठाकुर का कुआँ --ओमप्रकाश वाल्मीकि

 चूल्हा मिट्टी का

मिट्टी तालाब की

तालाब ठाकुर का।

भूख रोटी की

रोटी बाजरे की

बाजरा खेत का

खेत ठाकुर का।

बैल ठाकुर का

हल ठाकुर का

हल की मूठ पर हथेली अपनी

फ़सल ठाकुर की।

कुआँ ठाकुर का

पानी ठाकुर का

खेत-खलिहान ठाकुर के

गली-मुहल्ले ठाकुर के

फिर अपना क्या?

गाँव?

शहर?

देश

 

Monday, November 4, 2024

'इंशा'-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या --इब्न-ए-इंशा

'इंशा'-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या

वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या

इस दिल के दरीदा दामन को देखो तो सही सोचो तो सही

जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली का फैलाना क्या

शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में

क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या

फिर हिज्र की लम्बी रात मियाँ संजोग की तो यही एक घड़ी

जो दिल में है लब पर आने दो शर्माना क्या घबराना क्या

उस रोज़ जो उन को देखा है अब ख़्वाब का आलम लगता है

उस रोज़ जो उन से बात हुई वो बात भी थी अफ़साना क्या

उस हुस्न के सच्चे मोती को हम देख सकें पर छू न सकें

जिसे देख सकें पर छू न सकें वो दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या

उस को भी जला दुखते हुए मन इक शो'ला लाल भबूका बन

यूँ आँसू बन बह जाना क्या यूँ माटी में मिल जाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यूँ बन में न जा बिसराम करे

दीवानों की सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या

हम दीवानों की क्या हस्ती --भगवतीचरण वर्मा

हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले

मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले

आए बनकर उल्लास कभी, आँसू बनकर बह चले अभी

सब कहते ही रह गए, अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले

किस ओर चले? मत ये पूछो, बस चलना है इसलिए चले

जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले

दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हँसे और फिर कुछ रोए

छक कर सुख दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले

हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले

हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले

हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके

हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले

अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले

हम स्वयं बंधे थे, और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले

हम आँधियों के बन में किसी कारवाँ के थे --जौन एलिया

हम आँधियों के बन में किसी कारवाँ के थे

जाने कहाँ से आए हैं जाने कहाँ के थे

 

ऐ जान-ए-दास्ताँ तुझे आया कभी ख़याल

वो लोग क्या हुए जो तिरी दास्ताँ के थे

 

हम तेरे आस्ताँ पे ये कहने को आए हैं

वो ख़ाक हो गए जो तिरे आस्ताँ के थे

 

मिल कर तपाक से न हमें कीजिए उदास

ख़ातिर न कीजिए कभी हम भी यहाँ के थे

 

क्या पूछते हो नाम-ओ-निशान-ए-मुसाफ़िराँ

हिन्दोस्ताँ में आए हैं हिन्दोस्ताँ के थे

 

अब ख़ाक उड़ रही है यहाँ इंतिज़ार की

ऐ दिल ये बाम-ओ-दर किसी जान-ए-जहाँ के थे

 

हम किस को दें भला दर-ओ-दीवार का हिसाब

ये हम जो हैं ज़मीं के न थे आसमाँ के थे

 

हम से छिना है नाफ़-पियाला तिरा मियाँ

गोया अज़ल से हम सफ़-ए-लब-तिश्नगाँ के थे

 

हम को हक़ीक़तों ने किया है ख़राब-ओ-ख़्वार

हम ख़्वाब-ए-ख़्वाब और गुमान-ए-गुमाँ के थे

 

सद-याद-ए-याद 'जौन' वो हंगाम-ए-दिल कि जब

हम एक गाम के न थे पर हफ़्त-ख़्वाँ के थे

 

वो रिश्ता-हा-ए-ज़ात जो बरबाद हो गए

मेरे गुमाँ के थे कि तुम्हारे गुमाँ के थे

 


मैं एक शादीशुदा औरत हूँ! --शाहरुख़ हैदर

मैं एक औरत हूँ 

ईरानी औरत

रात के आठ बजे हैं

यहां ख़याबान सहरूरदी शिमाली पर

बाहर जा रही हूँ रोटियां ख़रीदने

न मैं सजी धजी हूँ 

न मेरे कपड़े ख़ूबसूरत हैं

मगर यहां 

सरेआम

ये सातवीं गाड़ी है...

मेरे पीछे पड़ी है

कहते हैं 

शौहर है या नहीं

मेरे साथ घूमने चलो

जो भी चाहोगी तुम्हें ले दूंगा।

यहां तंदूरची है...

वक़्त साढ़े आठ हुआ है

आटा गूंथ रहा है 

मगर पता नहीं क्यों

मुझे देखकर आंख मार रहा है

नान देते हुए 

अपना हाथ 

मेरे हाथ से मिस कर रहा है!!

ये तेहरान है...

सड़क पार की तो 

गाड़ी सवार मेरी तरफ आया

गाड़ी सवार.. क़ीमत पूछ रहा है

रात के कितने ?

मैं नहीं जानती थी 

रातों की क़ीमत क्या है!!

ये ईरान है...

मेरी हथेलियां नम हैं

लगता है बोल नहीं पाऊंगी

अभी मेरी शर्मिंदगी और रंज का पसीना

ख़ुश्क नहीं हुआ था कि घर पहुंच गई।

इंजीनियर को देखा...

एक शरीफ़ मर्द 

जो दूसरी मंज़िल पर 

बीवी और बेटी के साथ रहता है

सलाम...

बेगम ठीक हैं आप ?

आपकी प्यारी बेटी ठीक है ?

वस्सलाम...

तुम ठीक हो? ख़ुश हो ?

नज़र नहीं आती हो ?

सच तो ये है 

आज रात मेरे घर कोई नहीं

अगर मुमकिन है तो आ जाओ

नीलोफ़र का कम्प्यूटर ठीक कर दो

बहुत गड़बड़ करता है

ये मेरा मोबाइल है

आराम से चाहे जितनी बात करना

मैं दिल मसोसते हुए कहती हूँ

बहुत अच्छा अगर वक़्त मिला तो ज़रूर!!

ये सरज़मीने-इस्लाम है

ये औलिया और सूफ़ियों की सरज़मीन है

यहां इस्लामी क़ानून राइज हैं

मगर यहां जिन्सी मरीज़ों ने

मादा ए मन्विया (वीर्य) बिखेर रखा है।

न दीन न मज़हब न क़ानून

और न तुम्हारा नाम हिफ़ाज़त कर सकता है।

ये है 

इस्लामी लोकतंत्र...

और मैं एक औरत हूँ

मेरा शौहर 

चाहे तो चार शादी करे

और चालीस औरतों से मुताअ

मेरे बाल 

मुझे जहन्नुम में ले जाएंगे

और मर्दों के बदन का इत्र

उन्हें जन्नत में ले जाएगा

मुझे 

कोई अदालत मयस्सर नहीं

अगर मेरा मर्द तलाक़ दे 

तो इज़्ज़तदार कहलाए

अगर मैं तलाक़ मांगू 

तो कहें

हद से गुज़र गई शर्म खो बैठी

मेरी बेटी को शादी के लिए

मेरी इजाज़त दरकार नहीं

मगर बाप की इजाज़त लाज़िमी है।

मैं दो काम करती हूँ

वह काम से आता है आराम करता है

मैं काम से आकर फिर काम करती हूँ

और उसे 

सुकून फ़राहम करना मेरा ही काम है।

मैं एक औरत हूँ...

मर्द को हक़ है कि मुझे देखे

मगर ग़लती से अगर 

मर्द पर मेरी निगाह पड़ जाए

तो मैं आवारा और बदचलन कहलाऊं।

मैं एक औरत हूँ...

अपने तमाम पाबंदी के बाद भी औरत हूँ

क्या मेरी पैदाइश में कोई ग़लती थी ?

या वह जगह ग़लत थी जहां मैं बड़ी हूई ?

मेरा जिस्म 

मेरा वजूद

एक आला लिबास वाले मर्द की सोच और 

अरबी ज़बान के चंद झांसे के नाम बिका हुआ है।

अपनी किताब बदल डालूं 

या

यहां के मर्दों की सोच

या 

कमरे के कोने में क़ैद रहूं ?

मैं नहीं जानती...

मैं नहीं जानती 

कि क्या मैं दुनिया में

बुरे मुक़ाम पर पैदा हुई हूँ

या बुरे मौके पर पैदा हुई हूँ।