Friday, October 14, 2011

तटस्थ के प्रति


चैन की बाँसुरी बजाइये आप


शहर जलता है और गाइये आप


हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं


असली सूरत ज़रा दिखाइये आप


-गोरख पाण्डेय

उनका डर


वे डरते हैं


किस चीज़ से डरते हैं वे


तमाम धन-दौलत


गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?


वे डरते हैं


कि एक दिन


निहत्थे और ग़रीब लोग


उनसे डरना


बंद कर देंगे ।


-गोरख पाण्डेय

फूल


फूल हैं गोया मिट्टी के दिल हैं
धड़कते हुए 
बादलों के ग़लीचों पे रंगीन बच्चे
मचलते हुए 
प्यार के काँपते होंठ हैं
मौत पर खिलखिलाती हुई चम्पई


ज़िन्दगी
जो कभी मात खाए नहीं
और ख़ुश्बू हैं
जिसको कोई बाँध पाये नहीं


ख़ूबसूरत हैं इतने
कि बरबस ही जीने की इच्छा जगा दें
कि दुनिया को और जीने लायक बनाने की
इच्छा जगा दें.


-गोरख पाण्डेय

कला कला के लिए हो


कला कला के लिए हो
जीवन को ख़ूबसूरत बनाने के लिए
न हो
रोटी रोटी के लिए हो
खाने के लिए न हो


मज़दूर मेहनत करने के लिए हों
सिर्फ़ मेहनत
पूंजीपति हों मेहनत की जमा पूंजी के
मालिक बन जाने के लिए
यानि,जो हो जैसा हो वैसा ही रहे
कोई परिवर्तन न हो
मालिक हों
ग़ुलाम हों
ग़ुलाम बनाने के लिए युद्ध हो
युद्ध के लिए फ़ौज हो
फ़ौज के लिए फिर युद्ध हो


फ़िलहाल कला शुद्ध बनी रहे
और शुद्ध कला के
पावन प्रभामंडल में
बने रहें जल्लाद
आदमी को
फाँसी पर चढ़ाने लिए.


-गोरख पाण्डेय

समय का पहिया


समय का पहिया चले रे साथी 
समय का पहिया चले 
फ़ौलादी घोंड़ों की गति से आग बरफ़ में जले रे साथी
समय का पहिया चले
रात और दिन पल पल छिन 
आगे बढ़ता जाय
तोड़ पुराना नये सिरे से 
सब कुछ गढ़ता जाय
पर्वत पर्वत धारा फूटे लोहा मोम सा गले रे साथी
समय का पहिया चले
उठा आदमी जब जंगल से 
अपना सीना ताने
रफ़्तारों को मुट्ठी में कर 
पहिया लगा घुमाने
मेहनत के हाथों से 
आज़ादी की सड़के ढले रे साथी
समय का पहिया चले 


-गोरख पाण्डेय

वतन का गीत


हमारे वतन की नई ज़िन्दगी हो
नई ज़िन्दगी इक मुकम्मिल ख़ुशी हो
नया हो गुलिस्ताँ नई बुलबुलें हों
मुहब्बत की कोई नई रागिनी हो
न हो कोई राजा न हो रंक कोई
सभी हों बराबर सभी आदमी हों
न ही हथकड़ी कोई फ़सलों को डाले
हमारे दिलों की न सौदागरी हो
ज़ुबानों पे पाबन्दियाँ हों न कोई
निगाहों में अपनी नई रोशनी हो
न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन
न ही कोई भी क़ायदा हिटलरी हो
सभी होंठ आज़ाद हों मयक़दे में
कि गंगो-जमन जैसी दरियादिली हो
नये फ़ैसले हों नई कोशिशें हों
नयी मंज़िलों की कशिश भी नई हो.


-गोरख पाण्डेय

वोट


पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइले
तोहके खेतवा दिअइबो
ओमें फसली उगइबो ।
बजडा के रोटिया देई-देई नुनवा
सोचलीं कि अब त बदली कनुनवा ।
अब जमीनदरवा के पनही न सहबो,
अब ना अकारथ बहे पाई खूनवा ।


दुसरे चुनउवा में जब उपरैलें त बोले लगले ना
तोहके कुँइयाँ खोनइबो
सब पियसिया मेटैबो
ईहवा से उड़ी- उड़ी ऊंहा जब गैलें
सोंचलीं ईहवा के बतिया भुलैले
हमनी के धीरे से जो मनवा परैलीं
जोर से कनुनिया-कनुनिया चिलैंले ।


तीसरे चुनउवा में चेहरा देखवलें त बोले लगले ना
तोहके महल उठैबो
ओमें बिजुरी लागैबों
चमकल बिजुरी त गोसैयां दुअरिया
हमरी झोपडिया मे घहरे अन्हरिया
सोंचलीं कि अब तक जेके चुनलीं
हमके बनावे सब काठ के पुतरिया ।


अबकी टपकिहें त कहबों कि देख तूं बहुत कइलना
तोहके अब ना थकईबो
अपने हथवा उठईबो
हथवा में हमरे फसलिया भरल बा
हथवा में हमरे लहरिया भरलि बा
एही हथवा से रुस औरी चीन देश में
लूट के किलन पर बिजुरिया गिरल बा ।
जब हम ईंहवो के किलवा ढहैबो त एही हाथें ना
तोहके मटिया मिलैबों
ललका झंडा फहरैबों
त एही हाथें ना
पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइले ....


-गोरख पाण्डेय

Tuesday, October 11, 2011

कवितापाठ से पहले एक मिनट का मौन




इससे पहले कि मैं यह कविता पढ़ना शुरू करूँ
मेरी गुज़ारिश है कि हम सब एक मिनट का मौन रखें
ग्यारह सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन में मरे लोगों की याद में
और फिर एक मिनट का मौन उन सब के लिए जिन्हें प्रतिशोध में
सताया गया, क़ैद किया गया
जो लापता हो गए जिन्हें यातनाएं दी गईं
जिनके साथ बलात्कार हुए एक मिनट का मौन
अफ़गानिस्तान के मज़लूमों और अमरीकी मज़लूमों के लिए


और अगर आप इज़ाजत दें तो


एक पूरे दिन का मौन
हज़ारों फिलस्तीनियों के लिए जिन्हें उनके वतन पर दशकों से काबिज़
इस्त्राइली फ़ौजों ने अमरीकी सरपरस्ती में मार डाला
छह महीने का मौन उन पन्द्रह लाख इराकियों के लिए, उन इराकी बच्चों के लिए,
जिन्हें मार डाला ग्यारह साल लम्बी घेराबन्दी, भूख और अमरीकी बमबारी ने


इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ


दो महीने का मौन दक्षिण अफ़्रीका के अश्वेतों के लिए जिन्हें नस्लवादी शासन ने
अपने ही मुल्क में अजनबी बना दिया। नौ महीने का मौन
हिरोशिमा और नागासाकी के मृतकों के लिए, जहाँ मौत बरसी
चमड़ी, ज़मीन, फ़ौलाद और कंक्रीट की हर पर्त को उधेड़ती हुई,
जहाँ बचे रह गए लोग इस तरह चलते फिरते रहे जैसे कि जिंदा हों।
एक साल का मौन विएतनाम के लाखों मुर्दों के लिए --
कि विएतनाम किसी जंग का नहीं, एक मुल्क का नाम है --
एक साल का मौन कम्बोडिया और लाओस के मृतकों के लिए जो
एक गुप्त युद्ध का शिकार थे -- और ज़रा धीरे बोलिए,
हम नहीं चाहते कि उन्हें यह पता चले कि वे मर चुके हैं। दो महीने का मौन
कोलम्बिया के दीर्घकालीन मृतकों के लिए जिनके नाम
उनकी लाशों की तरह जमा होते रहे
फिर गुम हो गए और ज़बान से उतर गए।


इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ।


एक घंटे का मौन एल सल्वादोर के लिए
एक दोपहर भर का मौन निकारागुआ के लिए
दो दिन का मौन ग्वातेमालावासिओं के लिए
जिन्हें अपनी ज़िन्दगी में चैन की एक घड़ी नसीब नहीं हुई।
४५ सेकिंड का मौन आकतिआल, चिआपास में मरे ४५ लोगों के लिए,
और पच्चीस साल का मौन उन करोड़ों गुलाम अफ्रीकियों के लिए
जिनकी क़ब्रें समुन्दर में हैं इतनी गहरी कि जितनी ऊंची कोई गगनचुम्बी इमारत भी न होगी।
उनकी पहचान के लिए कोई डीएनए टेस्ट नहीं होगा, दंत चिकित्सा के रिकॉर्ड नहीं खोले जाएंगे।
उन अश्वेतों के लिए जिनकी लाशें गूलर के पेड़ों से झूलती थीं
दक्षिण, उत्तर, पूर्व और पश्चिम


एक सदी का मौन


यहीं इसी अमरीका महाद्वीप के करोड़ों मूल बाशिन्दों के लिए
जिनकी ज़मीनें और ज़िन्दगियाँ उनसे छीन ली गईं
पिक्चर पोस्ट्कार्ड से मनोरम खित्तों में --
जैसे पाइन रिज वूंडेड नी, सैंड क्रीक, फ़ालन टिम्बर्स, या ट्रेल ऑफ टियर्स।
अब ये नाम हमारी चेतना के फ्रिजों पर चिपकी चुम्बकीय काव्य-पंक्तियाँ भर हैं।


तो आप को चाहिए खामोशी का एक लम्हा ?
जबकि हम बेआवाज़ हैं
हमारे मुँहों से खींच ली गई हैं ज़बानें
हमारी आखें सी दी गई हैं
खामोशी का एक लम्हा
जबकि सारे कवि दफनाए जा चुके हैं
मिट्टी हो चुके हैं सारे ढोल।


इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
आप चाहते हैं एक लम्हे का मौन
आपको ग़म है कि यह दुनिया अब शायद पहले जैसी नहीं रही रह जाएगी
इधर हम सब चाहते हैं कि यह पहले जैसी हर्गिज़ न रहे।
कम से कम वैसी जैसी यह अब तक चली आई है।


क्योंकि यह कविता ९/११ के बारे में नहीं है
यह ९/१० के बारे में है
यह ९/९ के बारे में है
९/८ और ९/७ के बारे में है
यह कविता १४९२ के बारे में है।*


यह कविता उन चीज़ों के बारे में है जो ऐसी कविता का कारण बनती हैं।
और अगर यह कविता ९/११ के बारे में है, तो फिर :
यह सितम्बर ९, १९७१ के चीले देश के बारे में है,
यह सितम्बर १२, १९७७ दक्षिण अफ़्रीका और स्टीवेन बीको के बारे में है,
यह १३ सितम्बर १९७१ और एटिका जेल, न्यू यॉर्क में बंद हमारे भाइयों के बारे में है।


यह कविता सोमालिया, सितम्बर १४, १९९२ के बारे में है।


यह कविता हर उस तारीख के बारे में है जो धुल-पुँछ रही है कर मिट जाया करती है।
यह कविता उन ११० कहानियो के बारे में है जो कभी कही नहीं गईं, ११० कहानियाँ
इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में जिनका कोई ज़िक्र नहीं पाया जाता,
जिनके लिए सीएनएन, बीबीसी, न्यू यॉर्क टाइम्स और न्यूज़वीक में कोई गुंजाइश नहीं निकलती।
यह कविता इसी कार्यक्रम में रुकावट डालने के लिए है।


आपको फिर भी अपने मृतकों की याद में एक लम्हे का मौन चाहिए ?
हम आपको दे सकते हैं जीवन भर का खालीपन :
बिना निशान की क़ब्रें
हमेशा के लिए खो चुकी भाषाएँ
जड़ों से उखड़े हुए दरख्त, जड़ों से उखड़े हुए इतिहास
अनाम बच्चों के चेहरों से झांकती मुर्दा टकटकी
इस कविता को शुरू करने से पहले हम हमेशा के लिए ख़ामोश हो सकते हैं
या इतना कि हम धूल से ढँक जाएँ
फिर भी आप चाहेंगे कि
हमारी ओर से कुछ और मौन।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रोक दो तेल के पम्प
बन्द कर दो इंजन और टेलिविज़न
डुबा दो समुद्री सैर वाले जहाज़
फोड़ दो अपने स्टॉक मार्केट
बुझा दो ये तमाम रंगीन बत्तियां
डिलीट कर दो सरे इंस्टेंट मैसेज
उतार दो पटरियों से अपनी रेलें और लाइट रेल ट्रांजिट।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन, तो टैको बैल ** की खिड़की पर ईंट मारो,
और वहां के मज़दूरोंका खोया हुआ वेतन वापस दो। ध्वस्त कर दो तमाम शराब की दुकानें,
सारे के सारे टाउन हाउस, व्हाइट हाउस, जेल हाउस, पेंटहाउस और प्लेबॉय।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रहो मौन ''सुपर बॉल'' इतवार के दिन ***
फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई के रोज़ ****
डेटन की विराट १३-घंटे वाली सेल के दिन *****
या अगली दफ़े जब कमरे में हमारे हसीं लोग जमा हों
और आपका गोरा अपराधबोध आपको सताने लगे।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो अभी है वह लम्हा
इस कविता के शुरू होने से पहले।


( ११ सितम्बर, २००२ )


फ़ुट नोट :
* १४९२ के साल कोलम्बस अमरीकी महाद्वीप पर उतरा था।
** टैको बैल : अमरीका की एक बड़ी फास्ट फ़ूड चेन है।
*** ''सुपर बॉल'' सन्डे : अमरीकी फुटबॉल की राष्ट्रीय चैम्पियनशिप के फाइनल का दिन।
इस दिन अमरीका में गैर-सरकारी तौर पर राष्ट्रीय छुट्टी हो जाती है।
**** फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई : अमरीका का ''स्वतंत्रता दिवस'' और राष्ट्रीय छुट्टी का दिन।
४ जुलाई १७७६ को अमरीका में ,''डिक्लरेशन ऑफ इंडीपेंडेंस'' पारित किया गया था।
***** डेटन : मिनिओपोलिस नामक अमरीकी शहर का मशहूर डिपार्टमेंटल स्टोर।


एमानुएल ओर्तीज़ मेक्सिको-पुएर्तो रीको मूल के युवा अमरीकी कवि हैं। वह एक कवि-संगठनकर्ता हैं और आदि-अमरीकी बाशिन्दों, विभिन्न प्रवासी समुदायों और अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए सक्रिय कई प्रगतिशील संगठनों से जुड़े हैं।
हिंदी अनुवाद- असद जैदी (साभार)

वतन को कुछ नहीं ख़तरा


वतन को कुछ नहीं ख़तरा निज़ामेज़र है ख़तरे में
हक़ीक़त में जो रहज़न है, वही रहबर है ख़तरे में

जो बैठा है सफ़े मातम बिछाए मर्गे ज़ुल्मत पर 
वो नौहागर है ख़तरे में, वो दानिशवर है ख़तरे में

अगर तश्वीश लाह़क है तो सुल्तानों को लाह़क है
न तेरा घर है ख़तरे में न मेरा घर है ख़तरे में

जो भड़काते हैं फिर्क़ावारियत की आग को पैहम
उन्हीं शैताँ सिफ़त मुल्लाओं का लश्कर है ख़तरे में

जहाँ ‘इकबाल’ भी नज़रे ख़तेतंसीख हो ‘जालिब’
वहाँ तुझको शिकायत है, तेरा जौहर है ख़तरे में


-हबीब जालिब

मौलाना


बहुत मैंने सुनी है आपकी तक़रीर मौलाना
मगर बदली नहीं अब तक मेरी तक़दीर मौलाना


खुदारा सब्र की तलकीन अपने पास ही रखें
ये लगती है मेरे सीने पे बन कर तीर मौलाना


नहीं मैं बोल सकता झूठ इस दर्ज़ा ढिठाई से
यही है ज़ुर्म मेरा और यही तक़सीर मौलाना


हक़ीक़त क्या है ये तो आप जानें और खुदा जाने
सुना है जिम्मी कार्टर आपका है पीर मौलाना


ज़मीनें हो वडेरों की, मशीनें हों लुटेरों की
ख़ुदा ने लिख के दी है आपको तहरीर मौलाना


करोड़ों क्यों नहीं मिलकर फ़िलिस्तीं के लिए लड़ते
दुआ ही से फ़क़त कटती नहीं ज़ंजीर मौलाना


-हबीब जालिब

मुशीर




 मैंने उससे ये कहा
            ये जो दस करोड़ हैं
            जेहल का निचोड़ हैं
            
            इनकी फ़िक्र सो गई
            हर उम्मीद की किस
            ज़ुल्मतों में खो गई

            ये खबर दुरुस्त है
            इनकी मौत हो गई
            बे शऊर लोग हैं
            ज़िन्दगी का रोग हैं 
            और तेरे पास है
            इनके दर्द की दवा

मैंने उससे ये कहा

            तू ख़ुदा का नूर है
            अक्ल है शऊर है
            क़ौम तेरे साथ है
तेरे ही वज़ूद से
मुल्क की नजात है
तू है मेहरे सुबहे नौ
तेरे बाद रात है
बोलते जो चंद हैं
सब ये शर पसंद हैं
इनकी खींच ले ज़बाँ
इनका घोंट दे गला

मैंने उससे ये कहा

            जिनको था ज़बाँ पे नाज़
            चुप हैं वो ज़बाँ-दराज़
            चैन है समाज में
            वे मिसाल फ़र्क है
            कल में और आज में
            अपने खर्च पर हैं क़ैद
            लोग तेरे राज में
            आदमी है वो बड़ा
            दर पे जो रहे पड़ा
            जो पनाह माँग ले
            उसकी बख़्श दे ख़ता

मैंने उससे ये कहा

            हर वज़ीर हर सफ़ीर
            बेनज़ीर है मुशीर
            वाह क्या जवाब है
            तेरे जेहन की क़सम
            ख़ूब इंतेख़ाब है
            जागती है अफ़सरी
            क़ौम महवे ख़ाब है
            ये तेरा वज़ीर खाँ
            दे रहा है जो बयाँ
            पढ़ के इनको हर कोई
            कह रहा है मरहबा

मैंने उससे ये कहा

            चीन अपना यार है
            उस पे जाँ निसार है
            पर वहाँ है जो निज़ाम
            उस तरफ़ न जाइयो
            उसको दूर से सलाम
            दस करोड़ ये गधे
           जिनका नाम है अवाम
            क्या बनेंगे हुक्मराँ
            तू "चक़ीं" ये "गुमाँ"
            अपनी तो दुआ है ये
            सद्र तू रहे सदा

मैंने उससे ये कहा


-हबीब जालिब

माँ


बच्चों पे चली गोली
माँ देख के यह बोली
यह दिल के मेरे टुकड़े
यूँ रोए मेरे होते
मैं दूर खड़ी देखूँ
ये मुझ से नहीं होगा


मैं दूर खड़ी देखूँ
और अहल-ए सितम खेलें
ख़ून से मेरे बच्चों के
दिन-रात यहाँ होली
बच्चों पे चली गोली
माँ देख के यह बोली
यह दिल के मेरे टुकड़े
यूँ रोए मेरे होते
मैं दूर खड़ी देखूँ
ये मुझ से नहीं होगा


मैदान में निकल आई
इक बर्क़-सी लहराई
हर दस्त-ए सितम कपड़ा
बंदूक भी ठहराई
हर सिम्त सदा गूँजी
मैं आती हूँ, मैं आई
मैं आती हूँ, मैं आई


हर ज़ुल्म हुआ बातिल
और सहम गए क़ातिल
जब उसने ज़बाँ खोली
बच्चों पे चली गोली
उस ने कहा ख़ून ख़्वारो !
दौलत के परस्तारो
धरती है यह हम सब की
इस धरती को नादानो
अंग्रेज़ों के दरबानो !
साहेब की अता करदाह
जागीर न तुम जानो
इस ज़ुल्म से बाज़ आओ
बैरक में चले जाओ
क्यों चंद लुटेरों की
फिरते हो लिए टोली 
बच्चों पे चली गोली


-हबीब जालिब

पाकिस्तान का मतलब क्या ?


रोटी, कपड़ा और दवा
घर रहने को छोटा-सा
मुफ़्त मुझे तालीम दिला
मैं भी मुसलमाँ हूँ वल्लाह
पाकिस्तान का मतलब क्या ?
ला इल्लाह इल्लालह...

अमरीका से माँग न भीक
मत कर लोगों की तज़हीक
रोक न जम्हूरी तहरीक
छोड़ न आज़ादी की राह
पाकिस्तान का मतलब है क्या ?
ला इल्लाह इल्लालह...

खेत वडेरों से ले लो
मिलें लुटेरों से ले लो
मुल्क अंधेरों से ले लो
रहे न कोई आलीजाह
पाकिस्तान का मतलब क्या ?
ला इल्लाह इल्लालह...

सरहद, सिंध, बलूचिस्तान
तीनों हैं पंजाब की जान
और बंगाल है सब की आन
आए न उन के लब पर आह
पाकिस्तान का मतलब क्या ?
ला इल्लाह इल्लालह...

बात यही है बुनियादी
ग़ासिब की हो बरबादी
हक़ कहते हैं हक़ आगाह
पाकिस्तान का मतलब क्या ?
ला इल्लाह इल्लालह...

-हबीब जालिब

बगिया लहूलुहान


हरियाली को आँखे तरसें बगिया लहूलुहान
प्यार के गीत सुनाऊँ किसको शहर हुए वीरान
बगिया लहूलुहान ।

डसती हैं सूरज की किरनें चाँद जलाए जान
पग-पग मौन के गहरे साए जीवन मौत समान
चारों ओर हवा फिरती है लेकर तीर-कमान
बगिया लहूलुहान ।

छलनी हैं कलियों के सीने खून में लतपत पात
और न जाने कब तक होगी अश्कों की बरसात
दुनियावालों कब बीतेंगे दुख के ये दिन-रात
ख़ून से होली खेल रहे हैं धरती के बलवान
बगिया लहू लुहान ।


-हबीब जालिब

कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं


कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं
अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं


बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ
न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं


वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है
न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं


कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम
चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं


हमेशा औज पर देखा मुक़द्दर उन अदीबों का
जो इब्नुलवक़्त होते हैं हवा के साथ चलते हैं


हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया ‘जालिब’
कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खूँ से जलते हैं


-हबीब जालिब

दस्तूर


 दीप जिसका महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर हर मसलहत के पले

ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़ियार से
क्यूँ डराते हो जिन्दाँ की दीवार से

ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो

इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

तूमने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूँ
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर

मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता


-हबीब जालिब

ख़ुदा हमारा है


ख़ुदा तुम्हारा नहीं है ख़ुदा हमारा है
उसे ज़मीं पे ये ज़ुल्म कब गवारा है


लहू पियोगे कहाँ तक हमारा धनवानो
बढ़ाओ अपनी दुकान सीम-ओ-ज़र के दीवानो
हमें यक़ीं है के इन्सान उसको प्यारा है


ख़ुदा तुम्हारा नहीं है ख़ुदा हमारा है
उसे ज़मीं पे ये ज़ुल्म कब गवारा है


नई शऊर की है रोशनी निगाहों में
इक आग-सी भी है अब अपनी सर्द आहों में
खिलेंगे फूल नज़र के सहर की बाहों में
दुखी दिलों को इसी आस का सहारा है


ख़ुदा तुम्हारा नहीं है ख़ुदा हमारा है
उसे ज़मीं पे ये ज़ुल्म कब गवारा है


तिलिस्म-ए-स्याह-ए-ख़ौफ़-ओ-हिरास तोड़ेंगे
क़दम बढ़ाएँगे ज़ंजीर-ए-यास तोड़ेंगे
कभी किसी के न हम दिल की आस तोड़ेंगे
रहेगा याद जो एह्द-ए सितम गुज़ारा है
उसे ज़मीं पे ज़ुल्म कब गवारा है


ख़ुदा तुम्हारा नहीं है ख़ुदा हमारा है
उसे ज़मीं पे ये ज़ुल्म कब गवारा है


-हबीब जालिब

ख़तरे में इस्लाम नहीं

ख़तरा है जरदारों को
गिरती हुई दीवारों को
सदियों के बीमारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं


सारी ज़मीं को घेरे हुए हैं आख़िर चंद घराने क्यों
नाम नबी का लेने वाले उल्फ़त से बेगाने क्यों


ख़तरा है खूँखारों को
रंग बिरंगी कारों को
अमरीका के प्यारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं


आज हमारे नारों से लज़ी है बया ऐवानों में
बिक न सकेंगे हसरतों अमों ऊँची सजी दुकानों में


ख़तरा है बटमारों को
मग़रिब के बाज़ारों को
चोरों को मक्कारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं


अम्न का परचम लेकर उठो हर इंसाँ से प्यार करो
अपना तो मंशूर है ‘जालिब’ सारे जहाँ से प्यार करो


ख़तरा है दरबारों को
शाहों के ग़मख़ारों को
नव्वाबों ग़द्दारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं


-हबीब जालिब