Wednesday, October 25, 2017

उन नौजवानों से जो कुछ करना चाहते हैं

प्रतिभा उनके लेखे वही है
जो तुम्हें हासिल होती है तभी जब
उपन्यास छप जाय और उसे
हाथोंहाथ लिया जाय. उससे पहले
जो तुम्हारा सरमाया है वह
महज थकानेवाला विभ्रम,
बुनाई करने जैसा कोई शौक.

काम का मायने तभी है
जब नाटक का मंचन हो जाय
और ताली बजाएँ दर्शक.
उससे पहले पूछते रहते हैं दोस्त
कि कब निकल रहे हो
नौकरी तलाशने के लिए.

प्रतिभा का पता तभी चलता है उन्हें
जब तुम्हारी अनूठी कविताओं का
तीसरा संकलन आ जाये. इससे पहले
तुम पर इल्जाम मढते हैं पिछड़ने का
कहते हैं अब तक कोई बाल-बच्चा
क्यों नहीं, तुम्हें लफंगा समझते हैं.

मनोहर नामों से कला की कार्यशाला
क्यों लगाते हैं लोग, जबकि वास्तव में
सीख पाते हो महज कुछेक तकनीक,
टंकण निर्देश और कुछ भाव-भंगिमाएँ.
क्या कलाकार की कमी सिर्फ इतनी
कि दीवार पर लटकाने के लिए
किसी दंतचिकित्सक या पशुचिकित्सक
की तरह होना चाहिए लाइसेन्स
जो आपको प्रमाणित करे
चाहे काहिल और परपीडक हों और
आपके बनाये दाँत शोरबे में गिर पड़ें
आप कहलाएँगे प्रमाणित दंतचिकित्सक.

असली लेखक वही है
जो सचमुच लिखता है. प्रतिभा
एक खोज है ज्वलनशीलता जैसी जो
काम आती है आग लगने-बुझने के बाद.
रचना खुद अपना उपचार है. इसे ही
पसंद करना बेहतर होगा तुम्हारे लिए,
इस बात से बेखबर कि लोग
तुमसे प्यार करें या न करें.
- मार्ज पियर्सी

(अनुवाद- दिगम्बर)

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