Tuesday, November 15, 2011

और बचे रहें स्वप्न

मेरी आत्मा जिस बात की गिरफ्त में आ चुकी है
उसके रहते मैं कभी भी शांत नहीं बैठ सकता
कभी भी चीजों को सामान्य ढंग से नहीं ले सकता
मुझे आगे बढ़ते रहना है, बिना विराम के।
अतः आओ, हम सारा कुछ दांव पर लगा दें
न आराम करें, न थकान को तरजीह दें
न रहें गमगीन खामोशी के आगोश में
न होने दें बुद्धि को मंद
बिना गति की इच्छा के, बगैर चाहत के
बुदबुदाता हुआ अंतर्चिंतन में नहीं,
न दर्द के हल के नीचे दबें
ताकि हममें बची रहें इच्छाएं
और
बचे रहें स्वप्न, बची रहे कारवाई,
भले ही वे अपूर्ण ही क्यों न हों।
-कार्ल मार्क्स

1 comment:

  1. आभार कवि मार्क्स से परिचय करवाने के लिए..

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