Tuesday, November 22, 2011

क़त्ले-आफ़ताब

शफ़क़1 के रंग में है क़त्ले-आफ़ताब2 का रंग
उफ़ुक़3 के दिल में है ख़ंजर, लहूलुहान है शाम
सफ़ेद शीशा-ए-नूर और सिया बारिशे-संग4
ज़मीं से ता-ब-फ़लक5 है बलन्द रात का नाम

यकीं का ज़िक्र ही क्या है कि अब गुमाँ भी नहीं
मका़मे-दर्द नहीं, मंज़िले-फ़ुगाँ भी नहीं
वो बेहिसी6 है कि जो क़ाबिले-बयाँ भी नहीं
कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग
जबीने-शौक़7 नहीं संगे-आस्ताँ8 भी नहीं
रक़ीब9 जीत गये ख़त्म हो चुकी है जंग
हज़ार लब से जुनूँ सुन रहे हैं अफ़साना

दिलों में शो’ला-ए-ग़म बुझ गया है क्या कीजे
कोई हसीन नहीं किससे अब वफ़ा कीजे
सिवाय इसके कि क़ातिल ही को दुआ दीजे

मगर ये जंग नहीं वो जो ख़त्म हो जाए
इक इन्तिहा10 है फ़क़त हुस्ने-इब्तिदा11 के लिए
बिछे हैं ख़ार कि गुज़रेंगे क़ाफ़िले गुल के
ख़मोशी मुह्र-ब-लब12 है किसी सदा के लिए
उदासियाँ हैं ये सब नग़मःओ-नवा13 के लिए

वो पहना शम्‌अ़ ने फिर ख़ूने-आफ़ताव का ताज
सितारे ले के उठे नूरे-आफ़ताब14 के जाम
पलक-पलक पे फ़िरोज़ाँ15 हैं आँसुओं के चिराग़
लबें चमकती हैं या बिजलियाँ चमकती हैं
तमाम पैरहने-शब16 में भर गए हैं शरार17

चटक रही हैं कहीं तीरगी की दीवारें
लचक रही हैं कहीं शाख़े-गुल की तलवारें
सनक रही हैं कहीं दश्ते-सरकशी में हवा
चहक रही है कहीं बुलबुले-बहारे-नवा
महक रही है लबो-आरिज़ो-नज़र18 की शराब

जवान ख़्वाबों के जंगल से आ रही है नसीम
नफ़स में निक़हते-पैग़ामे-इन्क़िलाब19 लिए
ख़बर है क़ाफ़िलः-ए-रंगो-नूर निकलेगा
सहर के दोश पे20 इक ताज़ा आफ़ताब लिए
-अली सरदार जाफ़री
शब्दार्थ:
1. सवेरे या शाम के समय क्षितिज की लालिमा, 2. सूर्य का वध, 3. क्षितिज,
4. पत्थरों की बारिश, 5. धरती से क्षितिज तक, 6. चेतना या एहसास का अभाव,
7. चाव से झुकने वाला माथा, 8. दहलीज़ का पत्थर (झुकने के लिए), 9. प्रतिद्वन्द्वी,
10. समाप्ति,समापन, 11. केवल शुभारम्भ के सौंदर्य के लिए,
12. स्तब्ध,मौन,चुपी की मुहर लगवाए हुए, 13. गीत और स्वर, 14. सूर्य के प्रकाश,
15. आलोकित, 16. रात्रि के वस्त्रों,  17. अंगारे, 18. होंठों,गालों और आँखों,
19. इन्क़िलाब के पैग़ाम की ख़ुशबू, 20. काँधे पर

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