Tuesday, November 22, 2011

नवम्बर, मेरा गहवारा से

हवाओं के तुन्द-ओ-तेज़ झोंके
जब आँधियों का लिबास पहने 
उतरते हैं गारते-चमन पर
तो शाखे़-गुल अपना सर झुकाकर सलाम करती है
और फिर सर उठा के हँसती है
और कहती है- मुझको देखो
मैं फ़ितरते-लाज़वाल का रंगे-शाइरी हूँ
वुज़ूद का रक़्से-दिलबरी हूँ
जिसे मिटाने की कोशिशें हैं
वो मिट सका है न मिट सकेगा
यह रंग सह्ने-बमन से उबलेगा
मक़्तलों से तुलूअ़ होगा...............


जियो तो अपने दिल-ओ-जाँ के मयकदे में जियो
ख़ुद अपने ख़ूने-जिगर की शराबे-नाब पियो
जहाँ के सामने जब आओ ताज़ा-रू आओ
हुज़ूरे-मुहतसिब-ओ शैख़ में सुबू लाओ
जो ज़ख़्म-ख़ुर्दा है वो नग़्मःए-गुलू लाओ
दिले-शिकस्ता में बढ़ने दो रौशनी ग़म की
ये रौशनी तो है मीरास इब्ने-आदम की
ये रौशनी कि जो तलवार भी सिपर भी है
मिरी निग़ाह में पैमानःए-हुनर भी है.............

-अली सरदार जाफ़री

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