यह एशिया की ज़मीं, तमद्दुन की कोख, तहज़ीब का वतन है
जबीं पे तारों का ताज, पैरों में झाग की झाँझनों का नग़मा
ज़मीन-सदियों पुराने हाथों में अपने लकडी़ के हल सँभाले
गरीब मज़दूर, जलती आँखें
उचाट नींदों की तल्ख़ रातें
थके हुए हाथ, भाप का ज़ोर, गर्म फ़ौलाद की रवानी
जहाज़, मल्लाह, गीत, तूफ़ाँ
कुम्हार, लोहार, चाक, बरतन
ग्वालनें दूध में नहायी
अलावों के गिर्द बूढ़े अफ़साना-गो, कहानी
जवान माँओं की गोद में नन्हे-नन्हे बच्चों के भोले चेहरे
लहकते मैदान, गायें, भैंसें
फ़ज़ाओं में बाँसुरी का लहरा
हरी-भरी खेतियों में शीशे की चूड़ियाँ खनखना रही हैं
उदास सहरा पयम्बरों की तरह से खा़मोश और गम्भीर
खजूर के पेड़ बाल खोले
दफ़ों की आवाज़ ढोलकों की गमक
समन्दर के क़हक़हे नारियल के पेड़ों की सर्द आहें..........
यह एशिया है, जवान, शादाब और धनवान एशिया है
कि जिसके निर्धन ग़रीब बच्चों को भूक के नाग डस रहे हैं
वो होंट जो माँ के दूध के बाद फिर न वाकि़फ़ हुए
कभी दूध के मज़े से
ज़बानें ऐसी जिन्होंने चक्खा नहीं है, गेहूँ की रोटियों को
वह पीठ जिसने सफ़ेद कपडा़ छुआ नहीं है
वो उँगलियाँ जो किताब से मस नहीं हुई हैं
वो पैर जो बूट और स्लीपर की शक्ल पहचानते नहीं हैं
वो सर जो तकियों की नर्म लज़्ज़त से बेख़बर हैं
वो पेट जो भूक ही को भोजन समझ रहे हैं
ये नादिरे-रोज़गार इंसाँ
तुम्हें फ़क़त एशिया की जन्नत ही में मिलेंगे
जो तीन सौ साल के ‘तमद्दुन’ के बाद भी ‘जानवर’रहे हैं
कहाँ हो ‘तहज़ीब और तमद्दुन’ की रौशनी लेके आनेवालो
तुम्हारी ‘तहज़ीब’ की नुमाइश है एशिया में.........
जबीं पे तारों का ताज, पैरों में झाग की झाँझनों का नग़मा
ज़मीन-सदियों पुराने हाथों में अपने लकडी़ के हल सँभाले
गरीब मज़दूर, जलती आँखें
उचाट नींदों की तल्ख़ रातें
थके हुए हाथ, भाप का ज़ोर, गर्म फ़ौलाद की रवानी
जहाज़, मल्लाह, गीत, तूफ़ाँ
कुम्हार, लोहार, चाक, बरतन
ग्वालनें दूध में नहायी
अलावों के गिर्द बूढ़े अफ़साना-गो, कहानी
जवान माँओं की गोद में नन्हे-नन्हे बच्चों के भोले चेहरे
लहकते मैदान, गायें, भैंसें
फ़ज़ाओं में बाँसुरी का लहरा
हरी-भरी खेतियों में शीशे की चूड़ियाँ खनखना रही हैं
उदास सहरा पयम्बरों की तरह से खा़मोश और गम्भीर
खजूर के पेड़ बाल खोले
दफ़ों की आवाज़ ढोलकों की गमक
समन्दर के क़हक़हे नारियल के पेड़ों की सर्द आहें..........
यह एशिया है, जवान, शादाब और धनवान एशिया है
कि जिसके निर्धन ग़रीब बच्चों को भूक के नाग डस रहे हैं
वो होंट जो माँ के दूध के बाद फिर न वाकि़फ़ हुए
कभी दूध के मज़े से
ज़बानें ऐसी जिन्होंने चक्खा नहीं है, गेहूँ की रोटियों को
वह पीठ जिसने सफ़ेद कपडा़ छुआ नहीं है
वो उँगलियाँ जो किताब से मस नहीं हुई हैं
वो पैर जो बूट और स्लीपर की शक्ल पहचानते नहीं हैं
वो सर जो तकियों की नर्म लज़्ज़त से बेख़बर हैं
वो पेट जो भूक ही को भोजन समझ रहे हैं
ये नादिरे-रोज़गार इंसाँ
तुम्हें फ़क़त एशिया की जन्नत ही में मिलेंगे
जो तीन सौ साल के ‘तमद्दुन’ के बाद भी ‘जानवर’रहे हैं
कहाँ हो ‘तहज़ीब और तमद्दुन’ की रौशनी लेके आनेवालो
तुम्हारी ‘तहज़ीब’ की नुमाइश है एशिया में.........
-अली सरदार जाफ़री
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