देशहित पैदा हुए हैं, देश पर मर जायेंगे !
मरते - मरते देश को जिन्दा मगर कर जायेंगे !
हमको पीसेगा फलक, चक्की में अपनी कब तलक
ख़ाक बनकर आँख में उसकी बसर कर जायेंगे !
कर रही बर्गे-खिजा को वादे सरसर दूर क्यों,
पेशवा-ए-फासले-गुल हैं खुद समर कर जायेंगे !
खाक में हमको मिलाने का तमाशा देखना,
तुख्म रेज़ी से नए पैदा शज़र कर जायेंगे !
नौ-नौ आंसू जो रुलाते हैं हमें, उनके लिए,
अश्क के सैलाब से बरपा हषर कर जायेंगे !
गर्दिशे-गिरदाब में डूबे तो कुछ परवा नहीं,
बहरे-हस्ती में नयी पैदा लहर कर जायेंगे !
क्या कुचलते हैं समझकर वो हमें बर्ग-हिना
अपने खूं से हाथ उनके तर-बतर कर जायेंगे !
नक़्शे-पा से क्या मिटाता तू हमें पीरे-फलक
रहवरी का काम देंगे जो गुजर कर जायेंगे.
-आज़ाद
No comments:
Post a Comment