झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,
इसलिए हमें सहेज लो, ममी, सही ।
जीवित का तिरस्कार, पुजें मक़बरे,
रीति यह तुम्हारी है, कौन क्या करे ।
ताजमहल, पितृपक्ष, श्राद्ध सिलसिले,
रस्म यह अभी नहीं, कभी थमी नहीं ।
शायद कल मानव की हों न सूरतें
शायद रह जाएँगी, हमी मूरतें ।
आदम के शकलों की यादगार हम,
इसलिए, हमें सहेज लो, डमी सही ।
पिरामिड, अजायबघर, शान हैं हमीं,
हमें देखभाल लो, नहीं ज़रा कमी ।
प्रतिनिधि हम गत-आगत दोनों के हैं,
पथरायी आँखों में है नमी कहीं ?
-उमाकांत मालवीय
No comments:
Post a Comment