Sunday, January 1, 2012

कचहरी के मारे का गीत

ऐसे  धरे धूप ने धौल
      देह सब कारी है गयी है,
कारी है गयी है, देह सब कारी है गयी है!
      जब चाहे तब पाँय भगाए
कोट कचहरी ने,
     जब पहुंचे तारीख डारी दई,
गूंगी बहरी ने,
इतनी करी परेड, देह सरकारी है गयी है!
इतवकील, उत थानेदारी
     लोहू पीवत है
दोनों तरफ गाँठ के ग्राहक
     बड़ी मुसीबत है,
इनके मारे भूख–प्यास, पटवारी है गयी है!
मंहगाई की मार, गवाही
     वारेन के नखरे,
पेट काटि के झेले तबहूँ, पूरे नाहिं परे
सुन लौ सारौ गाम, गरीबी गारी है गयी है!
     ऐसे धरे धूप ने धौल
देह सब कारी है गयी है.

-रमेश रंजक 

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